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पन्द्रहवां प्रकरण
तथापि, इस विषय पर इस ग्रंथ में थोड़ा भी विचार न करना उचित न होगा, इसलिये केवल दिग्दर्शन कराने के लिये इसकी कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का विवेचन इस उपसंहार में अब किया जावेगा। थोड़ा भी विचार करने पर यह सहज ही ध्यान में आ सकता है, कि सदाचार और दुराचार, तथा धर्म और अधर्म, शब्दों का उपयोग यथार्थ में ज्ञानवान मनुष्य कर्म के ही लिये होता है, और यही कारण है कि नीतिमत्ता केवल जड़ कर्मों में नहीं, किंतु बुद्धि में रहती है। “धर्मो हि तेषामधिको विशेषः-”धर्म-अधर्म का ज्ञान मनुष्य का अर्थात बुद्धिमान प्राणियों का ही विशिष्ट गुण है- इस वचन का तात्पर्य और भावार्थ भी वही है। किसी गधे या बैल के कर्मों को देख कर हम उसे उपद्रवी तो बेशक कहा करते हैं। परन्तु जब वह धक्का देता है तब उस पर कोई नालिश करने नहीं जाता; इसी तरह किसी नदी को, उसके परिणाम की ओर ध्यान देकर, हम भयंकर अवश्य कहते हैं, परन्तु जब उसमें बाढ़ आ जाने से फसल बह जाती है तो “अधिकांश लोगों की अधिक हानि” होने के कारण कोई उसे दुराचारणी, लुटेरी या अनीतिमान नहीं कहता। इस पर कोई प्रश्न कर सकते हैं, कि यदि धर्म-अधर्म के नियम मनुष्य के व्यवहारों ही के लिये उपयुक्त हुआ करते हैं, तो मनुष्य के कर्मों के भले-बुरे-पन का विचार भी केवल उसके कर्म से ही करने में क्या हानि है?
इस प्रश्न का उत्तर देना कुछ कठिन नहीं। अचेतन वस्तुओं और पशु-पक्षी आदि मूढ़ योनि के प्राणियों का दृष्टांत छोड दें और यदि मनुष्य के ही कृत्यों का विचार करें, तो भी देख पड़ेगा कि जब कोई आदमी अपने पागलपन अथवा अनजाने में कोई अपराघ कर डालता है, तब वह संसार में और कानून द्वारा क्षम्य माना जाता है। इससे यही बात सिद्ध होती है, कि मनुष्य के भी कर्म-अकर्म की भलाई- बुराई ठहराने के लिये, सब से पहले उसकी बुद्धि का ही विचार करना पड़ता है- अर्थात यह विचार करना पड़ता है, कि उसने उस कर्म को किस उद्देश, भाव या हेतु से किया और उसको उस कर्म के परिणाम का ज्ञान था या नहीं, कि वह अपनी इच्छा के अनुसार मनमाना दान दे दे। यह दानविषयक काम ‘अच्छा’ भले ही हो; परन्तु उसकी सच्ची नैतिक योग्यता उस दान की स्वाभाविक क्रिया से ही नहीं ठहराई जा सकती। इसके लिये, यह भी देखना पड़ेगा, कि उस धनवान मनुष्य की बुद्धि सचमुच श्रद्धायुक्त है या नहीं। और, इसका निर्णय करने के लिये, यदि स्वाभाविक रीति से किये गये धनदान के सिवा कुछ सुबूत न हो, तो इस दान की योग्यता किसी श्रद्धापूर्वक किये गये दान की योग्यता के बराबर नहीं समझी जाती- और कुछ नहीं तो संदेह करने के लिये उचित कारण अवश्य रह जाता है।
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