गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पन्द्रहवां प्रकरण
यदि ये बातें सच हैं, तो क्या इन कर्मवीरों में से किसी को भी यह नहीं सूझा होगा कि अपने कर्मयोग मार्ग का समर्थन किया जाना चाहिये? अच्छा; यदि कहा जाय, कि उस समय जितना ज्ञान था वह सब ब्राह्मण-जाति में ही था, और वेदान्ती ब्राह्मण कर्म करने के विषय में उदासीन रहा करते थे, इसलिये कर्मयोग-विषयक ग्रंथ नहीं लिखे गये होगें; तो यह आक्षेप भी उचित नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, उपनिषत्काल में और उसके बाद क्षत्रियों में भी जनक और श्रीकृष्णसरीखे ज्ञानी पुरुष हो गये हैं; और व्यास सदृश बुद्धिमान ब्राह्मणों ने बड़े बडे़ क्षत्रियों का इतिहास भी लिखा है। इस इतिहास को लिखते समय क्या उनके मन में यह विचार न आया होगा, कि जिन प्रसिद्ध पुरुषों का इतिहास हम लिख रहे हैं, उनके चरित्र के मर्म या रहस्य को भी प्रगट कर देना चाहिये? इस मर्म या रहस्य को ही कर्मयोग अथवा व्यवहारशास्त्र कहते हैं; और, इसे बतलाने के लिये ही महाभारत में स्थान स्थान पर सूक्ष्म धर्म-अधर्म का विवेचन करके, अंत में संसार के धारण एवं पोषण के लिये कारणीभूत होने वाले सदाचार अर्थात धर्म के मूल तत्त्वों का विवेचन मोक्ष-दृष्टि को न छोड़ते हुए गीता में किया गया है। अन्यान्य पुराणों में भी ऐसे बहुत से प्रसंग पाये जाते हैं। परन्तु गीता के तेज के सामने अन्य सब विवेचन फीके पड़ जाते हैं, इसी कारण से भगवद्गीता कर्मयोगशास्त्र का प्रधान ग्रंथ हो गया है। हमने इस बात का पिछले प्रकरणों में विस्तृत विवेचन किया है, कि कर्मयोग का सूक्ष्म स्वरूप क्या है। तथापि, जब तक इस बात की तुलना न की जावे, कि गीता में वर्णन किये गये कर्म-अकर्म के आध्यात्मिक मूल-तत्त्वों से पश्चिमी पंडितों द्वारा प्रतिपादित नीति के मूलतत्त्व कहाँ तक मिलते हैं; तब तक यह नहीं कहा जा सकता, कि गीताधर्म का निरूपण पूरा हो गया। इस प्रकार तुलना करते समय दोनों ओर के अध्यात्मज्ञान की भी तुलना करनी चाहिये। परंतु यह बात सर्वमान्य है, कि अब तक पश्चिमी आध्यात्मिक ज्ञान की पहुँच हमारे वेदान्त से अधिक दूर तक नहीं होने पाई हैं; इसी कारण से पूर्वी और पश्चिमी अध्यात्मशास्त्रों की तुलना करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती[1]। ऐसी अवस्था में अब केवल उस नीतिशास्त्र की अथवा कर्म-योग की तुलना का ही विषय बाकी रह जाता है, जिसके बारे में कुछ लोगों की समझ है, कि इसकी उत्पत्ति हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने नहीं बतलाई है। परन्तु एक इसी विषय का विचार भी इतना विस्तृत है, कि उसका पूर्णतया प्रतिपादन करने के लिये एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही लिखना पडेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदान्त और पश्चिमी तत्त्वज्ञान की तुलना प्रोफेसर डायसन के The Elements of Metaphysics नामक ग्रन्थ में कई स्थानों में की गई है। इस ग्रन्थ के दूसरे संस्करण के अन्त में “On the philosophy of Vedanta” इस विषय पर एक व्याख्यान भी छापा गया है। जब प्रो. डायसन सन 1893 में हिन्दुस्तान में आये थे, तब उन्होंने बंबई की रायल एशियाटिक सोसायटी में यह व्याख्यान दिया था। इसके अतिरिक्त The Religion and Philosophy of the Upanishads नामक डायसन साइब का ग्रन्थ भी इस विषय पर पढ़ने योग्य है।
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज