गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
“तस्मादयोगाय युज्यस्व’’ अर्थात तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही ‘योग’ कर्म योगशास्त्र है और जबकि यह बात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक-विलक्षण या अनोखा नहीं था- ऐसे अनेक छोटे बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर आया करते हैं- तब तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्म योगशास्त्र का जो विवेचन भगवद्गीता में किया गया है उसे हर एक मनुष्य सीखे। किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है; अतएव उनके सरल अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है; अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिये और यह भी देख लेना चाहिये कि उस शास्त्र के प्रतिपादन की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की आपत्तियां और बाधाएं होती हैं। इसलिये कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है। सब से पहला शब्द ‘कर्म’ है। ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है,उसका अर्थ ‘करना,व्यापार,हलचल’ होता है,और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है,अर्थात यही अर्थ गीता में विवक्षित है। ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी,इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिये गये हैं उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न न होने पावे। किसी भी धर्म को लीजिये,उसमें ईश्वर-प्राप्ति के लिये कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाये तो यज्ञ- योग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथो में यज्ञ-योग की विधि बताई गई है; परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर-विरोधी वचन भी पाये जाते है; अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के ही लिये जैमिनि के पूर्व मीमांसशास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ- याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है। मनुष्य जो कुछ करता है वह सब यज्ञ के लिये करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिये और ध्यान संग्रह करना है तो यज्ञ ही के लिये[1]। जबकि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ही ने दी है,तब यज्ञ के लिये मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा। वह कर्म यज्ञ का एक साधन है- वह स्वतंत्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिये,यज्ञ से जो फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है- उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिये किये गये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देने वाले नहीं है। तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति [2] के लिये ही यज्ञ कर्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है। इसी से स्वयं यज्ञ कर्म ‘पुरुषार्थ’ कहलाता है; क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्रीति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे ‘पुरुषार्थ’ कहते हैं[3]। यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा ‘ऋतु’ शब्द है,इसलिये ‘यज्ञार्थ’ के बदले ‘कर्तव्य’ भी कहा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मभा. शा.29.25
- ↑ अर्थात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुख प्राप्ति होती है और इस स्वर्ग प्राप्ति
- ↑ जै. सू. 4.1.1 और 2
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