गीता रहस्य -तिलक पृ. 40

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

 
समयत्यागिनो लुब्धान् गुरुनपि च केशव।
निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियः स हि धर्मवित्।।

“हे केशव! जो गुरु मर्यादा, नीति अथवा शिष्टाचार को भंग करते हैं और जो लोभी या पापी हैं उन्हीं को लड़ाई में मारने वाला क्षत्रिय ही धर्मज्ञ कहलाता है’’[1]। इसी तरह तैतिरीयोपनिषद में भी प्रथम “आचार्य देवो भव’’ कहकर उसी के आगे कहा है कि हमारे जो कर्म अच्छे हों उन्हीं का अनुकरण करो, औरों का नहीं “यान्यस्मार्क सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि’’–[2]। इससे उपनिषदों का यह सिद्धांत प्रगट होता है कि यद्यपि पिता और आचार्य को देवता के समान मानना चाहिये, तथापि यदि वे शराब पीते हों तो पुत्र और छात्र को अपने पिता या आचार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि नीति, मर्यादा और धर्म का अधिकार मां-बाप या गुरु से भी अधिक बलवान होता है। मनुजी की भिन्न आज्ञा का भी यही रहस्य है धर्म की रक्षा करो; यदि कोई धर्म का नाश करेगा, अर्थात धर्म की आज्ञा के अनुसार नहीं करेगा, तो वह उस मनुष्य का नाश किये बिना नहीं रहेगा”[3]

राजा तो गुरु से भी अधिक श्रेष्ठ एक देवता है[4]। परंतु वह भी धर्म से मुक्त नहीं हो सकता; यदि वह इस धर्म का त्याग कर देगा तो उसका नाश हो जायेगा; यह बात मनु स्मृति में कही गई है और महाभारत में वही भाव, वेन तथा खनीनेत्रराजाओं की कथा में, व्यक्त किया गया है[5] अहिंसा, सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय-निग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है[6]। काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिये जब तक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा तब तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है। विदुरनीति और भगवद्वीता में भी कहा हैः-

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशन मात्मनः।
कामः का्रेधस्तथा लोभस्तस्मादेवत् त्रयं त्यजेत्।।

“काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नरक के द्वार हैं, इनसे हमारा नाश होता है, इसलिये इनका त्याग करना चाहिये” [7]। परन्तु गीता ही में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है “धर्मा विरूद्वों भूतेशु कामोअस्मि भरतर्शभ”- हे अर्जुन! प्राणिमात्र में जो ‘काम’ धर्म के अनुकूल है वही मैं हूँ [8]। इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो ‘काम’ धर्म के विरुद्ध है वही नरक का द्वार है, इसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का ‘काम’ है अर्थात जो धर्म के अनुकूल है, वह ईश्वर को मान्य है। मनु ने भी यही कहा है “परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ”- जो अर्थ और काम, धर्म के विरुद्ध हों, उनका त्याग कर देना चाहिये[9]

यदि सब प्राणी कल से ‘काम’ का त्याग कर दें और मृत्युपर्यंत ब्रह्माचर्य व्रत से रहने का निश्चय कर लें तो सौ-पचास वर्ष ही में सारी सजीव सृष्टि का लय हो जायगा और जिस सृष्टि की रक्षा के लिये भगवान बार बार अवतार धारण करते है उसका अल्पकाल ही में उच्छेद हो जायेगा। यह बात सच है कि कि काम और क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं; परन्तु कब जब वे अनिवार्य हो जायं तब। यह बात मनु आदि शास्त्रकारों को सम्मत है कि सृष्टि का कम जारी रखने के लिये, उचित मर्यादा के भीतर, काम और क्रोध की अत्यंत आवश्यकता है[10] इन प्रबल मनोवृतियों का उचित रीति से निग्रह करना ही सब सुधारों का प्रधान उद्देश्य है। उनका नाश करना कोई सुधार नहीं कहा जा सकता; क्योंकि भागवत[11] में कहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शा. 55.19
  2. तै. 1.11.2
  3. मनु. 8.14-16
  4. मनु. 7.8 और महा. शा. 98.40
  5. मनु. 7.41 और 8.12; महा.शा. 59. 92-100 तथा अश्व. 4
  6. मनु. 10.93
  7. गीता. 19.21; महा. ऊ. 32.70
  8. गीता. 7.11
  9. मनु. 4.179
  10. मनु. 5.59
  11. 11.5.11

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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