गीता रहस्य -तिलक पृ. 318

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
ग्यारहवाँ प्रकरण

पूर्वातर सन्‍दर्भ पर विचार करने से यही निष्पन्न होता है, कि वह कार्य ‘कर्म’ ही है। और तब इस श्लोक का अर्थ ऐसा होता है, कि योगारुढ़ पुरुष अपने चित् को शान्‍त करे तथा उस शान्ति या शम से ही अपने सब अगले व्‍यवहार करे–टीकाकारों के कथनानुसार यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि ‘योगारुढ़ पुरुष कर्म छोड़ दे’। इसी प्रकार ‘सर्वारम्‍भ-परित्‍यागी’ और ‘अनिकेत:’ प्रभृति पदों का अर्थ भी कर्मत्‍याग विषयक नहीं, फलाशा-त्‍याग विषयक ही करना चाहिये; गीता के अनुवाद में, उन स्‍थलों पर जहाँ ये पद आये हैं, हमने टिप्‍पणी में यह बात खोल दी है। भगवान् ने यह सिद्ध करने के लिये, कि ज्ञानी पुरुष को भी फलाशा त्‍याग कर चातुर्वणर्य आदि सब कर्म यथाशास्‍त्र करते रहना चाहिये, अपने अतिरिक्‍त दूसरा उदाहरण जनक का दिया है। जनक एक बड़े कर्मयोगी थे। उनकी स्‍वार्थ-बुद्धि के छूटने का परिचय उन्‍हीं के मुख से यों है–‘मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन'[1]मेरी राजधानी मिथिला के जल जाने पर भी मेरी कुछ हानि नहीं। इस प्रकार अपना स्‍वार्थ अथवा लाभालाभ न रहने पर भी, राज्‍य के समस्‍त व्‍यवहार करने के कारण बतलाते हुए, जनक स्‍वयं कहते हैं-

देवभ्यश्च पितृभ्‍यश्च भूतोभ्‍योऽतिथिभि: सह।
इत्‍यर्थे सर्व एवैते समारम्‍भा भवंति वै।।

“देव, पितर, सर्वभूत (प्राणी) और अतिथियों के लिये ये समस्‍त व्‍यवहार जारी हैं, मेरे लिये नहीं”[2]। अपना कोई कर्तव्‍य न रहने पर, अथवा स्‍वयं किसी वस्‍तु को पाने की वासना न रहने पर भी, यदि जनक-श्रीकृष्‍णा जैसे महात्‍मा इस जगत् का कल्‍याण करने के लिये प्रवृत न होंगे, तो यह संसार उत्‍सन्न (उजड़) हो जायगा–उत्‍सीदेयुरिमे लोका:[3]। कुछ लोगों का कहना है कि गीता के इस‍ सिद्धान्‍त में ‘फलाशा छोड़नी चाहिये, सब प्रकार की इच्‍छाओं को छोड़ने की आवश्‍यकता नहीं, और वासनाक्षय के सिद्धान्‍त में, कुछ बहुत भेद नहीं कर सकते। क्‍योंकि चाहे वासना छूटे, चाहे फलाशा छूटे; दोनों ओर कर्म करने की प्रवृति होने के लिये कुछ भी कारण नहीं देख पड़ता; इससे चाहे जिस पक्ष को स्‍वीकार करें, अन्तिम परिणाम-कर्म का छूटना–दोनों ओर बराबर है। परन्‍तु यह आपेक्ष अज्ञानमूलक है, क्‍योंकि ‘फलाशा’ शब्‍द ठीक ठीक अर्थ न जानने के कारण ही यह उत्‍पन्न हुआ है। फलाशा छोड़ने का अर्थ यह नहीं कि सब प्रकार की इच्‍छाओं को छोड़ देना चाहिये, अथवा यह बुद्धि या भाव होना चाहिये कि मेरे कर्मों का फल किसी को कभी न मिले और यदि मिले, तो उसे कोई भी न ले; प्रत्‍युत पांचवें प्रकरण में पहले ही हम कह आये हैं, कि ‘अमुक फल पाने के लिये ही मैं यह कर्म करता हूं’ इस प्रकार की फलविषयक ममता-युक्त आ‍सक्ति को या बुद्धि के आग्रह हो ‘फलाशा’ ‘संग’ या ‘काम’ नाम गीता में दिये गये हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शा. 275.4और 219. 50
  2. मभा.अश्व.32. 24
  3. गी.3.24

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः