गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
“ अब प्रश्न यह है कि एक ही हेतु-वाक्य से इस प्रकार भिन्न भिन्न दो अनुमान क्यों निकले? इसका उत्तर इतना ही है, कि गीता कर्मों को अपरिहार्य मानती है, इसलिये गीता के तत्त्वविचार के अनुसार यह अनुमान निकल ही नहीं सकता कि ‘कर्म छोड़ दो’। अतएव ‘तुझे अनावश्यक है’ इस हेतु वाक्य से ही गीता में यह अनुमान किया गया है कि स्वार्थ-बुद्धि छोड़ कर कर्म कर। वसिष्ठजी ने योगवासिष्ठ में श्रीरामचन्द्र को अब ब्रह्मज्ञान बतला कर निष्काम कर्म की ओर प्रवृत करने के लिये जो युक्तियां बतलाई हैं, वे भी इसी प्रकार की है। योगवासिष्ठ के अन्त में भगवद्गीता का उपर्युक्त सिद्धान्त ही अक्षरश: हूबहू आ गया है[1]। योगवासिष्ठ के समान ही बौद्धधर्म के महायान पन्थ के ग्रन्थों में भी इस सम्बन्ध में गीता का अनुवाद किया है। परन्तु विषयान्तर होने के कारण, उसकी चर्चा यहाँ नहीं की जा सकती; हमने इसका विचार आगे परिशिष्ठ प्रकरण में कर दिया है। आत्मज्ञान होने से ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह अहंकार की भाषा ही नहीं रहती[2] एवं इसी से ज्ञानी पुरुष को ‘निर-मम’ कहते है निर्मम का अर्थ ‘मेरा-मेरा (मम) न कहने वाला’ है; परन्तु भूल न जाना चाहिये, कि यद्यपि ब्रह्मज्ञान से ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह अहंकार-दर्शक भाव छूट जाता है, तथापि उन दो शब्दों के बदले ‘जगत्’ और ‘जगत्’ का’–अथवा भक्ति पक्ष में ‘परमेश्वर’ और ‘परमेश्वर का’–ये शब्द आ जाते हैं। संसार का प्रत्येक सामान्य मनुष्य अपने समस्त व्यवहार ‘मेरा’ या ‘मेरे लिये’ ही समझ कर किया करता है। परन्तु ज्ञानी होने पर, ममत्व की वासना छूट जाने के कारण, वह इस बुद्धि से (निर्मम बुद्धि से) उन व्यवहारों को करने लगता है कि ईश्वर-निर्मित संसार के समस्त व्यवहार परमेश्वर के हैं, और उनको करने के लिये ही ईश्वर ने हमें उत्पन्न किया है। अज्ञानी और ज्ञानी में यही तो भेद है[3]। गीता के इस सिद्धान्त पर ध्यान देने से ज्ञात हो जाता है, कि “योगारूढ़ पुरुष के लिये शम ही कारण होता है” (गी.6. 3 और इस हमारी टिप्पणी देखो), इस श्लोक का सरल अर्थ क्या होगा। गीता के टीकाकार कहते हैं- इस श्लोक में कहा गया है, कि योगारूढ़ पुरुष आगे (ज्ञान हो जाने पर) शम अर्थात् शान्ति को स्वीकार करे, और कुछ न करे। परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है। शम मन की शान्ति है; उसे अन्तिम ‘कार्य’ न कह कर इस श्लोक में यह कहा है, कि शम अथवा शान्ति दूसरे किसी का कारण है– शम: कारणमुच्यते। अब शम को ‘कारण’ मान कर देखना चाहिये कि आगे उसका ‘कार्य’ क्या है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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