गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसकी उपपत्ति वेदान्तसूत्र में इस प्रकार दी है ‘’ यावदधिकारमवस्थितिराधिकारिणाम् ‘’[1]– इसका जो ईश्वरनिर्मित अधिकार है, उसके पूरे न होने तक, कार्यों से छुटटी नहीं मिलती। आगे इस उपपत्ति की जांच की जावेगी। उपपत्ति कुछ ही क्यों न हो, पर यह बात निर्विवाद है, कि प्रवृति और निवृति दोनों पन्थ, ब्रह्मज्ञानी पुरुषों में, संसार के आरम्भ से प्रचलित हैं। इससे यह भी प्रगट है, कि इनमें से किसी की श्रेष्ठता का निर्णय सिर्फ आचार की और ध्यान दे कर किया नहीं जा सकता। इस प्रकार, पूर्वाचार द्विविध होने के कारण केवल आचार से ही यद्यपि यह निर्णय नहीं हो सकता, कि निवृति श्रेष्ठ है या प्रवृति, तथापि संन्यासमार्ग के लोगों की यह दूसरी दलील है कि–यदि यह निर्विवाद है कि बिना कर्म-प्रबन्ध से छूटे मोक्ष नहीं होता, तो ज्ञान-प्राप्ति हो जाने पर तृष्णामूलक कर्मों का झगड़ा, जितनी जल्दी हो सके, तोड़ने में श्रेय है। महाभारत के शुकानुशासन में–इसी को ‘शुकानुप्रश्न’ भी कहते है–संन्यासमार्ग का ही प्रतिपादन है। वहाँ शुक्र ने व्यासजी से पूछा है– यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च । “वेद, कर्म करने के लिये भी कहता है और छोड़ने के लिये भी; तो अब मुझे बतलाइये, कि विद्या से अर्थात कर्म-रहित ज्ञान से और केवल कर्म से कौन सी गति मिलती हैॽ” [2]इसके उतर में व्यास जी ने कहा है– कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते। “ कर्म से प्राणी बंध जाता है और विद्या से मुक्त हो जाता है; इसी से पारदर्शी यति अथवा संन्यासी कर्म नहीं करते ”[3]। इस श्लोक के पहले चरण का विवेचन हम पिछले प्रकरण में कर आये हैं। ‘’ कर्मणा बध्यते जंतुर्विधया तु प्रभुचयते ‘’ इस सिद्धांत पर कुछ वाद नहीं है। परन्तु स्मरण रहे कि वहाँ यह दिखलाया है कि, ‘’ कर्मणा बध्यते ‘’ का विचार करने से सिद्ध होता है कि जड़ अथवा चेतन कर्म किसी को न तो बांध सकता है और न छोड़ सकता है; मनुष्य फलाशा से अथवा अपनी आसक्ति से कर्मों में बंध जाता है; इस आसक्ति से अलग हो कर वह यदि केवल ब्राह्य इन्द्रियों से कर्म करे, तब भी वह मुक्त ही है। रामचन्द्रजी, इसी अर्थ को मन में रख कर, अध्यात्म रामायण[4] में लक्ष्मण से कहते हैं, कि– प्रवाहपतित: कार्ये कुर्वन्नपि न लिप्यते। ‘’ कर्ममय संसार के प्रवाह में पड़ा हुआ मनुष्य बाहरी सब प्रकार के कर्तव्य–कर्म करके भी अलिप्त रहता है। ‘’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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