गीता रहस्य -तिलक पृ. 309

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के इस सिद्धान्‍त पर ध्‍यान देने से देख पड़ता है, कि कर्मों को दु:खमय मान कर उनके त्‍यागने की आवश्‍यकता ही नहीं रहती; केवल मन को शुद्ध और सम करके फलाशा छोड़ देने से ही सब काम हो जाते हैं। तात्‍पर्य यह कि, यधपि ज्ञान और काम्‍य कर्म का विरोध हो, तथापि निष्‍काम-कर्म और ज्ञान के बीच कोई भी विरोध हो नही सकता। इसी से अनुगीता में ‘’ त्‍समात्‍कर्म न कुर्वन्ति ‘’ –अतएव कर्म नही करते – इस वाक्‍य के बदले, तस्‍मास्‍कर्मसु नि:स्‍नेहा ये केचिस्‍पारदर्शिन:। ‘’ इससे पारदर्शी पुरुष कर्म में आसक्ति नहीं रखते ‘’[1], यह वाक्‍य आया है। इसके पहले, कर्मयोग को स्‍पष्‍ट प्रतिपादन किया गया है, जैसे–

कुर्वते ये तु कर्माणि श्रद्दधाना वि‍पश्चित:।
अनाशीर्योगसंयुक्‍तास्‍ते धीरा: साधुदर्शिन:।।

अर्थात ‘’ जो ज्ञानी पुरुष श्रद्धा से, फलाशा न रख कर, ( कर्म ) योगमार्ग का अवलम्‍ब करके, कर्म करते हैं, वे ही साधुदर्शी हैं ‘’[2]। इसी प्रकार यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्‍यजेति च। इस पूर्वार्ध में जुड़ा हुआ ही, वनपर्व में युधिष्ठिर को शौनक का, यह उपदेश है –

तस्‍माद्धर्मानिमान् सर्वान्‍नाभिमानात्‌ समाचरेत्।

अर्थात ‘’ वेद में कर्म करने और छोड़ने की भी आज्ञा है; इसलिये ( कर्तृत्व का ) अभिमान छोड़ कर हमें अपने सब कर्म करना चाहिये ‘’[3]। शुकानुप्रश्‍न में भी व्‍यासजी ने शुक्र से दो बार स्‍पष्‍ट कहा है कि:-

एषा पूर्वतरा वृतिर्ब्राह्मणस्‍य विधियते।
ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्‍यति।।

‘’ ब्राह्मण की पूर्व की, पुरानी ( पूर्वतर ) वृत्ति यही है कि ज्ञानवान हो कर, सब काम करके ही, सिद्धि प्राप्‍त करें ‘’[4]। यह भी प्रगट है, कि यहाँ ‘’ ज्ञानवानेव ‘’ पद से ज्ञानोत्तर और ज्ञानयुक्‍त कर्म ही वि‍वक्षित है। अब दोनों पक्षों के उक्‍त सब वचनों का निराग्रह बुद्धि से विचार किया जाय तो, मालूम होगा कि ‘’ कर्मणा बध्‍यते जंतु:’’ इस दलील से सिर्फ कर्मत्‍याग-विषयक यह एक ही अनुमान निष्‍पन्‍न नहीं होता कि ‘’ तस्‍मात्‍कर्म न कुर्वन्ति ‘’ ( इससे काम नहीं करते ) ; किन्‍तु उसी दलील से यह निष्‍काम कर्म-योग-विषयक दूसरा अनुमान भी उतनी ही योग्‍यता का सिद्ध होता है, कि ‘’ तस्‍मात्‍कर्मसु नि:स्‍नेहा:- इससे कर्म में आसक्ति नहीं रखते। सिर्फ हम ही इस प्रकार के दो अनुमान नहीं करते, बल्कि व्‍यासजी ने भी यही अर्थ शुकानुप्रश्‍न के निम्‍न श्लोक मे स्‍पष्टतया बतलाया है–

द्वाविमावथ पन्‍थानौ यस्मिन् वेदा: प्रतिष्ठिता:।

प्रवृत्तिलक्षणो धर्म: निवृतिश्च विभाषित:।।[5] ‘’ इन दोनों मार्गों को वेदों का ( एक सा ) आधार है– एक प्रवृतिविषयक धर्म का और दूसरा निवृति अर्थात् संन्‍यास लेने का है ‘’[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अश्‍व. 51. 33
  2. अश्‍व. 50. 6, 7
  3. वन. 2. 73
  4. मभा. शां. 237. 1; 234. 29
  5. इस अन्तिम चरण के ‘ निवृतिश्च सुभाषित: ‘ और ‘ निवृतिश्च विभावित: ‘ ऐसे पाठ भेद भी हैं। पाठभेद कुछ भी हो; पर प्रथम ‘ द्वाविमौ ‘ यह पद अवश्‍य है जिससे इतना तो निर्विवाद सिद्ध होता है, कि दोनों पन्‍थ स्‍वतन्‍त्र हैं।
  6. मभा. शां. 240. 6

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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