गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
कर्म स्वरूपत: कभी जलते ही नहीं; और न उन्हें जलाने की कोई आवश्यकता है। जब यह बात सिद्ध है कि नाम-रूप है और नाम-रूप दृश्य सृष्टि है, तब यह समस्त दृश्य सृष्टि जलेगी कैसे। और कदाचित जल भी जाये, तो सत्कार्य वाद के अनुसार सिर्फ यही होगा कि उसका नाम-रूप बदल जायगा। नाम-रूपात्मक कर्म या माया हमेशा बदलती रहती है इसलिये मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार नाम-रूपों में भले ही परिवर्तन कर ले; परन्तु इस बात को नही भूलना चाहिये कि वह चाहे कितना भी ज्ञानी हो परन्तु इस नाम रूपात्मक कर्म या माया का समूल नाश कदापि नहीं कर सकता। यह काम केवल परमेश्वर से ही हो सकता है[1]। हां, मूल में इन जड़ कर्मों में भलाई बुराई का जो बीज है ही नहीं और जिसे मनुष्य उनमें अपनी ममत्वबुद्धि से उत्पन्न किया करता है, उसका नाश करना मनुष्य के हाथ में है; और उसे जो कुछ जलाना है वह यही वस्तु है। सब प्राणियों के विषय में समबुद्धि रख अपने सब व्यापारों की इस ममत्वबुद्धि को जिसने जला (नष्ट कर) दिया है, वही धन्य है वही कृत कृत्य और मुक्त है; सब कुछ करते रहने पर भी, उसके सब कर्म ज्ञानाग्रि से दग्ध समझे जाते हैं[2]। इस प्रकार कर्मों का दग्ध होना मन की निर्विषयता पर और ब्रह्मात्मैक्य के अनुभव पर ही सर्वथा अवलम्बित है; अतएव प्रगट है कि जिस तरह आग कभी भी उत्पन्न हो परन्तु वह दहन करने का अपना धर्म नहीं छोड़ती, उसी तरह ब्रह्मात्मैक्य–ज्ञान के होते ही कर्मक्षय-रूप परिणाम के होने में कालावधि की प्रतिक्षा नही करनी पड़ती–ज्योंही ज्ञान हुआ कि उसी क्षण कर्म-क्षय हो जाता है। परन्तु अन्य सब कालों में मरण-काल इस सम्बन्ध में अधिक महत्व का माना जाता है; क्योंकि यह आयु के बिलकुल अन्त का काल है, और इसके पूर्व किसी एक काल में ब्रह्मज्ञान से अनारब्ध-संचित का यदि क्षय हो गया हो तो भी प्रारब्ध नष्ट नहीं होता। इसलिये यदि यह ब्रह्मज्ञान अन्त तक एक समान स्थिर न रहे तो प्रारब्ध कर्मानुसार मृत्यु के पहले जो जो अच्छे या बुरे कर्म होंगे वे सब सकाम हो जावेंगे और उनका फल भोगने के लिये फिर भी जन्म लेना ही पड़ेगा। इसमें सन्देह नहीं कि जो पूरा जीवन्मुक्त हो जाता है उसे यह भय कदापि नहीं रहता; परन्तु जब इस विषय का शास्त्रदृष्टि से विचार करना हो तब इस बात का भी विचार अवश्य कर लेना पड़ता है, कि मृत्यु के पहले जो ब्रह्मज्ञान हो गया था वह कदाचित मरण काल तक स्थिर न रह सके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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