गीता रहस्य -तिलक पृ. 232

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

अतएव जो परब्रह्म सघनता से अकेला ही चारों ओर व्‍याप्‍त है, उसका और मनुष्‍य के शरीर में निवास करने वाले आत्‍मा का भेद बतलाने के लिये यद्यपि व्‍यवहार में ऐसा कहना पड़ता है कि ‘शरीर आत्‍मा‘ परब्रह्म का ही ‘अंश’ है; तथापि ‘अंश’ या ‘भाग’ शब्‍द का अर्थ ‘’ काट कर अलग किया टुकड़ा’’ या ‘’अनार के अनेक दानों में से एक दाना ‘ नहीं है; किन्‍तु तात्विक दृष्टि से उसका अर्थ यह समझना चाहिये, कि जैसे घर के भीतर का आकाश और घड़े का आकाश ( मठाकाश और घटाकाश ) एक ही सर्वव्‍यापी आकाश का ‘अंश’ या भाग है; उसी प्रकार ‘शरीर आत्‍मा’ भी परब्रह्म का अंश है[1]। सांख्‍य-वादियों की प्रकृति, और हेकल के जड़ाद्वैत में माना गया एक वस्‍तुतत्त्व, ये भी इसी प्रकार सत्‍य निर्गुण परमात्‍मा के ही सगुण अर्थात् मर्यादित अंश हैं। अधिक क्‍या कहें; अधिभौतिक शास्‍त्र की प्रणाली से तो यही मालूम होता है, कि जो कुछ व्‍यक्‍त या अव्‍यक्‍त तत्त्व है ( फिर चाहे वह आकाशवत् कितना भी व्‍यापक हो ), वह सब स्‍थल और काल से बद्ध केवल नाम-रूप अतएव मर्यादित और नाशवान् है।

यह बात सच है कि उन तत्त्वों की व्‍यापकता भर के लिये उतना ही परब्रह्म उनसे आच्‍छादित है; परन्‍तु परब्रह्म उन तत्त्वों से मर्यादित न होकर उन सब में ओत प्रोत भरा हुआ है और इसके अतिरिक्‍त ना जाने वह कितना बाहर है, जिसका कुछ पता नहीं। परमेश्‍वर की व्‍यापकता दृश्‍य सृष्टि के बाहर कितनी है, यह बतलाने के लिये यद्यपि ‘त्रिपाद’ शब्‍द का उपयोग पुरुषसूक्‍त में किया गया है, तथापि उसका अर्थ ‘अनन्‍त‘ ही इष्‍ट है। वस्‍तुत: देखा जाय तो देश और काल, माप और तौल या संख्‍या इत्‍यादि सब नाम-रूप के ही प्रकार हैं; और यह बतला चुके हैं कि परब्रह्म इन सब नाम-रूपों के परे है। इसी लिये उपनिषदों में ब्रह्म – स्‍वरूप के ऐसे वर्णन पाये जाते हैं, कि जिस नाम-रूपात्‍मक ‘काल’ से सब कुद ग्रसित हैं, उस ‘काल’ को भी ग्रसनेवाला या पचा जानेवाला जो जो तत्त्व है, वही परब्रह्म है[2]; और ‘न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:’-परमेश्‍वर को प्रकाशित करने-वाला सूर्य, चन्‍द्र, अग्नि इत्‍यादिकों के समान कोई प्रकाशक साधन नहीं है, किन्‍तु वह स्‍वयं प्रकाशित है – इत्‍यादि प्रकार के जो वर्णन उपनिषदों में और गीता में हैं उनका भी अर्थ वही है[3]। सूर्य-चन्‍द्र – तारा- गण सभी नाम – रूपात्‍मक विनाशी पदार्थ हैं। जिसे ‘ज्‍योतिषां ज्‍योति:’[4] कहते हैं, वह स्‍वयंप्रकाश और ज्ञानमय ब्रह्म इन सब के परे अनन्‍त भरा हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अमृतबिन्‍दुपनिषद 13 देखो
  2. मै. 6. 15
  3. गी.15. 6; कठ. 5. 15; श्‍वे. 6. 14
  4. गी.13.17; बृह. 4.4.16

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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