गीता रहस्य -तिलक पृ. 231

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

पुरानी परिभाषा से इसका भली भांती खुलासा हो जाता है कि गीता के इस ओम-तत्-सत् ब्रह्मनिर्देश[1] का मूल अर्थ क्या रहा होगा। वह ‘ओम’ गूढ़ाक्षररूपी वैदिक मन्त्र है; उपनिषदों में इसका अनेक रीतियों से व्याख्यान किया गया है[2]। ’तत्’ यानि वह अथवा दृश्य सृष्टि से परे दूर रहनेवाला अनिर्वाच्य तत्त्व है; और ‘सत्; का अर्थ है आंखों के सामनेवाली दृश्य सृष्टि। इस संकल्प का अर्थ यह है कि ये तीनों मिल कर सब ब्रह्म ही है; और इसी अर्थ में भगवान ने गीता में कहा है कि “सदसच्चाहमर्जुन’’[3]- सत् यानी परब्रह्म और असत् अर्थात अदृश्य सृष्टि, दोनों में ही हूँ। तथापि जबकि गीता में कर्म-योग ही प्रतिपाद्य है, तब सत्रहवें अध्याय के अन्त में प्रतिपादन किया है कि इस ब्रह्मनिर्देश से भी कर्मयोग का पूर्ण समर्थन होता है। ‘ऊँ तत्सत्’ के ‘सत्’ शब्‍द का अर्थ लौकिक दृष्टि से भला अर्थात् सद्बुद्धि से किया हुआ अथवा वह कर्म है कि जिसका अच्‍छा फल मिलता है; और तत् का अर्थ परे का या फलाश छोड़ कर किया हुआ कर्म है।

संकल्‍प में जिसे ‘ सत् ’ कहा है वह दृश्‍य सृष्टि यानी कर्म ही है, ( देखो अगला प्रकरण ), अत: ब्रह्मनिर्देश का यह कर्मप्रधान अर्थ मूल अर्थ से सहज ही निष्‍पन्न होता है। ऊँ तत्‍सत्, नेति नेति, सच्चिदानन्द,और सत्यस्य सत्यं के अतिरिक्त और भी कुछ ब्रह्मनिर्देश उपनिषदों में है; परन्‍तु उनको यहाँ इस‍लिये नहीं बतलाया कि गीता का अर्थ समझने में उनका उपयोग नहीं है। जगत् जीव और परमेश्‍वर ( परमात्‍मा ) के परस्‍पर सम्‍बध का इस प्रकार निर्णय हो जाने पर, गीता में भगवान् ने जो कहा है कि ‘’जीव मेरा ही ‘अंश’ है’’[4] और ‘’मैं ही एक ‘अंश’ से सारे जगत् में व्‍याप्‍त हूँ’’[5]-एवं बादरायणाचार्य ने भी वेदान्‍तसूत्र[6] में यही बात कही है-अथवा पुरुषसूक्‍त में जो ‘’पादोऽस्‍य विश्‍वा भूतानि त्रिपादस्‍या- मृतं दिवि’’ यह वर्णन है उसके ‘पाद’ या ‘अंश’ शब्‍द के अर्थ का निर्णय भी सहज ही हो जाता है। परमेश्‍वर या परमात्‍मा यद्यपि सर्वव्‍यापी है, तथापि वह निरवयव और नाम-रूप-रहित है; अतएव उसे काट नहीं सकते ( अच्‍छेद्य) और उसमें विकार भी नहीं होता (अविकार्य ); और इसलिये उसके अलग अलग विभाग या टुकड़े नहीं हो सकते[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.17.23
  2. प्र. 5;मां. 8-12;छां.1.1
  3. गी.9.19
  4. गीता.15.7
  5. गी. 10.42
  6. 2.3.43; 4.4.19
  7. गी.2.25

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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