गीता रहस्य -तिलक पृ. 217

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इसी से महात्माओं ने इस स्थिति का नाम ‘मरण का मरण’ रख छोडा है। और इसी कारण से याज्ञवल्क्य इस स्थिति को अमृतत्त्व की सीमा या पराकाष्ठा कहते हैं। यही जीवन्मुक्तावस्था है। पाञ्जलयोगसूत्र और अन्य स्थानों में भी वर्णन है कि, इस अवस्था में आकाश गमन आदि की कुछ अपूर्ण अलौकिक सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। [1]; और इन्हीं को पाने के लिये कितने ही मनुष्य योगाभ्यास की धुन में लग जाते हैं। परन्तु योगवासिष्ठ प्रणोता कहते हैं कि आकाशगमन प्रभृति सिद्धियां न तो ब्रह्मनिष्ठ स्थिति का साध्य है और न उसका कोई भाग ही, अतः जीवन्मुक्त पुरुष इन सिद्धियों को पा लेने का उद्योग नहीं करता और बहुधा उसमें ये देखी भी नहीं जाती[2]। इसी कारण इन सिद्धियों का उल्लेख न तो योगवासिष्ठ में ही और न गीता में ही कहीं है। वसिष्ठ ने राम से स्पष्ट कह दिया है कि ये चमत्कार तो माया के खेल हैं, कुछ ब्रह्मविद्या नहीं है। कदाचित् ये सच्चे हो, हम यह नहीं कहते कि ये होंगे ही नहीं। जो हो इतना तो निर्विवाद है कि यह ब्रह्मविद्या का विषय नहीं है। अतएवं ये सिद्धियां मिले तो और न मिले तो, इनकी परवा न करनी चाहिये, ब्रह्मविद्याशास्‍त्र का कथन[3] है कि इनकी इच्छा अथवा आशा भी न करके मनुष्य को वही प्रयत्न करते रहना चाहिये कि जिससे प्राणिमात्र में एक आत्मावाली परमावधि की ब्रह्मनिष्ठ स्थिति प्राप्त हो जावे।

ब्रह्मज्ञान आत्मा की शुद्ध अवस्था है; वह कुछ जादू, करामात या तिलस्माती लटका नहीं है। इस कारण इन सिद्धियों से -इन चमत्कारों से -ब्रह्मज्ञान के गौरव का बढ़ना तो दर किनार, उसके गौरव के-उसकी महत्ता के -ये चमत्कार प्रमाण भी नहीं हो सकते। पक्षी तो पहले भी उड़ते थे पर अब विमानों वाले लोग भी आकाश में उड़ने लगे हैं; किन्तु सिर्फ इसी गुण के होने से कोई इनकी गिनती ब्रह्मवेताओं में नहीं करता। और तो क्या, जिन पुरुषों को ये आकाश गमन आदि सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं, वे मालती-माधव नाटकवाले अघोरघराट के समान क्रूर और घातकी भी हो सकते हैं। ब्रह्मात्मैक्यरूप आनन्दमय स्थिति का अनिर्वाच्य अनुभव और किसी दूसरे को पूर्णतया बतलाया नहीं जा सकता। क्योंकि जब उसे दूसरे को बतलाने लगेंगे तब ‘मैं- तू’ वाली द्वैत की ही भाषा से काम लेना पड़ेगा; और इस द्वैती भाषा में अद्वैत का समस्त अनुभव व्यक्त करते नहीं बनता। अतएव उपनिषदों में इस परमावधि की स्थिति के जो वर्णन हैं, उन्हें भी अधूरे और गौण समझना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पातञ्जलसू 3.16.55
  2. देखो यो. 5.89
  3. गी. र. 30

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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