गीता रहस्य -तिलक पृ. 144

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

साम्यावस्था में कुछ भी हलचल नहीं होती; सब कुछ स्तब्ध रहता है। परंतु जब उक्त तीनों गुण न्यूनाधिक होने लगते हैं तब प्रवृत्यात्मक रजोगुण के कारण मूल प्रकृति से भिन्न भिन्न पदार्थ उत्पन्न होने लगते हैं और सृष्टि का आरम्भ होने लगता है। अब यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि पहले सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण साम्यावस्था में थे, तो इनमें न्यूनाधिकता कैसे हुई है? इस प्रश्न का सांख्य-वादी यही उत्तर देते हैं, कि यह प्रकृति का मूल धर्म ही है[1]। यद्यपि प्रकृति जड़ है तथापि वह आप ही आप सब व्यवहार करती रहती है। इन तीनों गुणों में से सत्त्व गुण का लक्षण ज्ञान अर्थात जानना और तमोगुण का लक्षण अज्ञानता है। रजोगुण, बुरे या भले कार्य का प्रवर्तक है। ये तीनों गुण कभी अलग अलग नहीं रह सकते। सब पदार्थों में सत्त्व, रज और तम तीनों का मिश्रण रहता ही है; और यह मिश्रण हमेशा इन तीनों की परस्पर न्यूनाधिकता से हुआ करता है; इसलिये यद्यपि मूलद्रव्य एक ही है तो भी गुण-भेद के कारण एक मूल द्रव्य के ही सोना, लोहा, मिट्टी, जल, आकाश, मनुष्य का शरीर इत्यादि भिन्न भिन्न अनेक विकार हो जाते हैं।

जिसे हम सात्त्विक गुण का पदार्थ कहते हैं उसमें, रज और तम की अपेक्षा, सत्त्वगुण का जोर या परिणाम अधिक रहता है; इस कारण उस पदार्थ में हमेशा रहने वाले रज और तम दोनों गुण दब जाते हैं और वे हमें देख नहीं पड़ते। वस्तुतः सत्त्व, रज और तम तीनों गुण, अन्य पदार्थों के समान, सात्त्विक पदार्थ में भी विद्यमान रहते हैं। केवल सत्त्वगुण का, केवल रजोगुण का, या केवल तमोगुण का, कोई पदार्थ ही नहीं है। प्रत्येक पदार्थ में तीनों गुणों का रगड़ा-झगड़ा चला ही रहता है; और, इस झगड़े में जो गुण प्रबल हो जाता है उसी के अनुसार हम प्रत्येक पदार्थ को सात्त्विक, राजस या तामस कहा करते हैं[2]। उदाहरणार्थ, अपने शरीर में जब रज और तम गुणों पर सत्त्व का प्रभाव जम जाता है तब अपने अंतःकरण में ज्ञान उत्पन्न होता है, सत्य का परिचय होने लगता है और चित्तवृत्ति शांत हो जाती है। उस समय यह नहीं समझना चाहिये कि अपने शरीर में रजोगुण और तमोगुण बिलकुल है ही नहीं; बल्कि वे सत्त्वगुण के प्रभाव से दब जाते हैं इसलिये उनका कुछ अधिकार चलने नहीं पाता[3]

यदि सत्त्व के बदले रजोगुण प्रबल हो जाय तो अंतःकरण में लोभ जागृत हो जाता है, इच्छा बढ़ने लगती है और रज की अपेक्षा तमोगुण प्रबल हो जाता है तब निद्रा, आलस्य, स्मृतिभ्रंश इत्यादि दोष शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। तात्पर्य यह है, कि इस जगत के पदार्थों में सोना, लोहा, पारा इत्यादि जो अनेकता या भिन्नता देख पड़ती है वह प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की ही परस्पर न्यूनाधिकता का फल है। मूल प्रकृति यद्यपि एक ही है तो भी जानना चाहिये कि यह अनेकता या भिन्नता कैसे उत्पन्न हो जाती है; बस, इसी विचार को ‘विज्ञान’ कहते हैं। इसी में सब आधिभौतिक शास्त्रों का भी समावेश हो जाता है। उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र विद्युतशास्त्र, पदार्थविज्ञान-शास्त्र, सब विविधज्ञान या विज्ञान ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सां. का. 61
  2. सां.का.12; मभा. अश्व-अनुगीता-36 और शां. 305
  3. गी.14.10

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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