गीता रहस्य -तिलक पृ. 143

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

सांख्य मतानुसार जब सत्कार्य-वाद सिद्ध हो जाता है, तब यह मत आप ही आप छूट जाता है कि दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति शून्य से हुई है। क्योंकि शून्य से अर्थात जो कुछ भी नहीं है; उससे ‘जो अस्तित्व में है’ वह उत्पन्न नहीं हो सकता। इस बात से यह साफ साफ सिद्ध होता है, कि सृष्टि किसी न किसी पदार्थ से उत्पन्न हुई है; और इस समय सृष्टि में जो गुण हमें देख पड़ते हैं वे ही इस मूलपदार्थ में भी होने चाहिये। अब यदि हम सृष्टि की ओर देखें तो हमें पशु, मनुष्य, पत्थर, सोना, चांदी, हीरा, जल, वायु इत्यादि अनेक पदार्थ देख पड़ते हैं; और इन सब के रूप तथा गुण भी भिन्न भिन्न हैं। सांख्य वादियों का सिद्धान्त है कि यह भिन्नता या नानात्व आदि में अर्थात मूलपदार्थ में नहीं है; किंतु मूल में सब वस्तुओं का द्रव्य एक ही सा है। अर्वाचीन रसायन-शास्त्रज्ञों ने भिन्न भिन्न द्रव्यों का पृथक्‍करण करके पहले 62 मूलतत्त्व ढूँढ़ निकाले थे; परंतु अब पश्चिमी विज्ञानवेत्ताओं ने भी यह निश्चय कर लिया है कि ये 62 मूलतत्त्व स्वतंत्र या स्वयंसिद्ध नहीं हैं, किंतु इन सब की जड़ में कोई न कोई एक ही पदार्थ है और उस पदार्थ से ही सूर्य, चंद्र, तारागण, पृथ्वी इत्यादि सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है। इसलिये अब उक्त सिद्धांत का अधिक विवेचन आवश्यक नहीं है। जगत के सब पदार्थों का जो ‘‘मूल’’ द्रव्‍य है, उसे ही सांख्‍यशास्‍त्रों में ‘’प्रकृति’’ कहते हैं। इस प्रकृति से आगे जो पदार्थ बनते हैं उन्हें ‘‘विकृति’’ अर्थात मूल द्रव्य के विकार कहते हैं।

परंतु यद्यपि सब पदार्थों में मूलद्रव्य एक ही है तथापि, यदि इस मूलद्रव्य में गुण भी एक ही हो तो, सत्कार्य-वादानुसार इस एक ही गुण से अनेक गुणों का उत्पन्न होना संभव नहीं है। और, इधर तो जब हम इस जगत के पत्थर, मिट्टी, पानी, सोना, इत्यादि भिन्न पदार्थों की ओर देखते हैं, तब उनमें भिन्न भिन्न अनेक गुण पाये जाते हैं। इसलिये पहले सब पदार्थों के गुणों का निरीक्षण करके सांख्यवादियों ने इन गुणों के सत्त्व, रज और तम ये तीन भेद या वर्ग कर दिये हैं। इसका कारण यही है कि, जब हम किसी भी पदार्थ को देखते हैं तब स्वभावतःउसकी दो भिन्न भिन्न अवस्थाएं देख पड़ती हैं; -पहली शुद्ध, निर्मल या पूर्णावस्था और दूसरी उसके विरुद्ध निकृष्टावस्था। परंतु, साथ ही साथ निकृष्टावस्था से पूर्णावस्था की ओर बढ़ने की उस पदार्थ की प्रवृति भी दृष्टिगोचर हुआ करती है, यही तीसरी अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं में से शुद्धावस्था या पूर्णावस्था को सात्त्विक, निकृष्टावस्था को तामसिक और प्रवर्तकावस्था को राजसिक कहते हैं। इस प्रकार सांख्य-वादी कहते हैं, कि सत्त्व, रज और तम तीनों गुण सब पदार्थों के मूलद्रव्य में अर्थात प्रवृति में आरंभ से ही रहा करते हैं। यदि यह कहा जाय कि इन तीन गुणों ही को प्रकृति कहते हैं, तो अनुचित नहीं होगा। इन तीनों गुणों में से प्रत्येक गुण का जोर आरंभ में समान या बराबर रहता है, इसीलिये पहले पहल यह प्रकृति साम्यावस्था में रहती है। यह साम्यावस्था जगत के आंरभ में थी; और जगत का लय हो जाने पर अंत में फिर से हो जायेगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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