गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
इन्हीं कारणों से रामानुजाचार्य ने[1] यह निर्णय किया है, कि गीता में यद्यपि ज्ञान, कर्म और भक्ति का वर्णन है तथापि तत्त्व-ज्ञान-दृष्टि से विशिष्टाद्वैत और आचार-दृष्टि से वासुदेव भक्ति का वर्णन है तथापि तत्त्व ज्ञान-दृष्टि से विशिष्टाद्वैत और आचार-दृष्टि से वासुदेव भक्ति ही गीता का सारांश है और कर्मनिष्ठा कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं- वह केवल ज्ञाननिष्ठा की उत्पादक है शांकरसम्प्रदाय के अद्वैतज्ञान के बदले विशिष्टाद्वैत और संन्यास के बदले भक्ति को स्थापित करके रामानुजाचार्य ने भेद तो किया, परन्तु उन्होंने आचार-दृष्टि से भक्ति ही को अंतिम कर्तव्य माना है; इससे वर्णाश्राम विहित सांसारिक कर्मों का मरण पर्यन्त किया जाना गौण हो जाता है और यह कहा जा सकता है कि गीता का रामानुजीय तात्पर्य भी एक प्रकार से कर्म संन्यास-विषयक ही है। कारण यह है कि कर्माचारण से चित शुद्धि होने के बाद ज्ञान की प्राप्ति होने पर चतुर्थाश्रम का स्वीकार करके ब्रह्मचिन्तन में निमग्न रहना, या प्रेमपूर्वक निस्सीम वासुदेव-भक्ति में तत्पर रहना, कर्मयोग की दृष्टि से एक ही बात है- ये दोनों मार्ग निवृति विषयक हैं। यही आक्षेप, रामानुज के बाद प्रचलित हुए संप्रदायों पर भी हो सकता है। माया को मिथ्या कहने वाले संप्रदाय को झूठ मानकर वासुदेव-भक्ति को ही सच्चा मोक्ष-साधन बतलाने वाले रामानुज संप्रदाय के बाद एक तीसरा संप्रदाय निकला। उसका मत है कि परब्रह्म और जीव को कुछ अंशों में एक, और कुछ अंश में भिन्न मानना परस्पर-विरुद्ध और असंबद्ध बात है, इसलिये दोनों को सदैव भिन्न मानना चाहिये क्योंकि इन दोनों में पूर्ण अथवा अपूर्ण रीति से भी एकता नहीं हो सकती। इस तीसरे संप्रदाय को 'द्वैतसंप्रदाय' कहते है। इस संप्रदाय के लोगों का कहना है कि इसके प्रवर्तक श्रीमध्वाचार्य (श्रीमदानंदतीर्थ) थे जो संवत् 1255 में समाधिस्थ हुए और उस समय उनकी अवस्था 76 वर्ष की थी। परन्तु डाक्टर भांड़ारकर ने जो एक अंग्रेजी ग्रंथ, "वैष्णव, शेव और अन्य पन्थ" नामक, हाल ही में प्रकाशित किया है उसके पृष्ठ 56 में, शिलालेख आदि प्रमाणों से, यह सिद्ध किया गया है कि मध्वाचार्य का समय संवत् 1254 से 1333 तक था। प्रस्थानत्रयी पर अर्थात गीता पर भी श्रीमध्वाचार्य के जो भाष्य हैं उनमें प्रस्थानत्रयी के सब ग्रन्थों का द्वैतमत-प्रतिपादक होना ही बतलाया गया है। गीता के अपने भाष्य में मध्वाचार्य कहते हैं कि यद्यपि गीता में निष्काम कर्म क महत्त्व का वर्णन है, तथापि वह केवल साधन है और भक्ति ही अंतिम निष्ठा है। भक्ति की सिद्धि हो जाने पर कर्म करना और न करना बराबर है। "ध्यानात कर्मफल त्यागः"- परमेश्वर के ध्यान अथवा भक्ति की अपेक्षा कर्मफल त्याग अर्थात् निष्काम कर्म करना श्रेष्ठ है- इत्यादि गीता के कुछ वचन इस सिद्धांत के विरुद्ध है; परन्तु गीता के माध्वभाष्य[2] में लिखा है कि इन वचनों को अक्षरश: सत्य न समझकर अर्थवादात्मक ही समझना चाहिये। चौथा संप्रदाय श्रीवल्लभाचार्य [3] का है। रामानुजीय और माध्वसंप्रदायों के समान ही यह संप्रदाय भी वैष्णवपंथी है। परन्तु जीव, जगत और ईश्वर के संबंध में, इस संप्रदाय का मत, विशिष्टाद्वैत और द्वैत मतों से भिन्न है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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