गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
ब्रहांड के इस विचार का ही नाम ’क्षर-अक्षर-विचार’ है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार से इस बात का निर्णय होता है, कि क्षेत्र में अर्थात् शरीर या पिंड में कौन सा मूल तत्त्व (क्षेत्रज्ञ या आत्मा) है ; और क्षर-अक्षर-विचार से बाह्य सृष्टि के अर्थात् ब्रहाण्ड़ के मूलतत्त्व का ज्ञान होता है। जब इस प्रकार पिंड़ और ब्रहांड़ के मूलतत्त्वों का पहले पृथक् पृथक् निर्णय हो जाता है, तब वेदांतशास्त्र में अंतिम सिद्धांत किया जाता है[1] कि ये दोनों तत्त्व एकरूप् अर्थात् एक ही हैं- यानी ’जो पिंड में है वही ब्रहांड में है’। यही, सब चराचर सृष्टि में, अंतिम सत्य है। पश्चिमी देशों में भी इन बातों की चर्चा की गई है और कांट जैसे कुछ पश्चिमी तत्त्वज्ञों के सिद्धांत हमारे वेदान्तशास्त्र के सिद्धांतों से बहुत कुछ मिलते जुलते भी हैं। जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं ; और जब हम यह भी देखते हैं कि वर्तमान समय की नाई प्राचीन काल में आधिभौतिक शास्त्रों की उन्नति नहीं हुई थी; तब, ऐसी अवस्था में जिन लोगों ने वेदांत के अपूर्व सिद्धांतों को ढूढ़ निकाला, उनके अलौकिक बुद्धि-वैभव के बारे में आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। और, न केवल आश्चर्य ही होना चाहिये। किंतु उसके बारे मे हमें उचित अभिमान भी होना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हमारे शास्त्रों के क्षर-अक्षर-विचार और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार के वर्गीकरण से ग्रीन साहब परिचित न थे। तथापि, उन्होंने अपने Prolegomena to Ethics ग्रंथ के आरम्भ में अध्यात्म का जो विवेचन किया है उसमें पहले Spiritual Prinoiple in Nature और Spiritual Principle in Man इन दोनों तत्त्वों का विचार किया गया है और फिर उनकी एकता दिखाई गई है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार में Psychology आदि मानसशास्त्रों का, और क्षर-अक्षर-विचार में Physics, Metaphysics आदि शास्त्रों का, समावेश होता है। इस बात को पश्चिमी पण्डित भी मानते हैं कि उक्त सब शास्त्रों का विचार कर लेने पर ही आत्मस्वरूप् का निर्णय करना पड़ता है।
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज