गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
अतएव, अंत में यही सिद्धांत करना पड़ता है, कि इस चेतनाविशिष्ट सजीव शरीर (क्षेत्र) में एक ऐसी शक्ति रहती है जो हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से लेकर प्राण, चेतना, मन और बुद्धि जैसे परतंत्र एवं एकदेशीय नौकरों के भी परे है ; जो उन सब के व्यापारों की एकता करती है और उनके कार्यो की दिशा बतलाती है ; अथवा जो उनके कर्मों की नित्य साक्षी रह कर उनसे भिन्न, अधिक व्यापक और समर्थ है। सांख्य और वेदान्तशास्त्रों को यह सिद्धांत मान्य है; और, अर्वाचीन समय में जर्मन तत्त्वज्ञ कान्ट ने भी कहा है कि बुद्धि के व्यापारों का सूक्ष्म निरीक्षण करने से यही तत्त्व निष्पन्न होता है। मन, बुद्धि, अहंकार और चेतना, ये सब, शरीर के अर्थात् क्षेत्र के गुण अथवा अवयव हैं। इनका प्रवर्तक इनसे भिन्न, स्वतंत्र और इनके परे है,- ’’यो बुद्धेः परतस्तु सः’’[1]। सांख्यशास्त्र में इसी का नाम पुरुष है; वेदान्ती इसी को क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र का जानने वाला आत्मा कहते हैं; और, ’मैं हूं’ यह प्रत्येक मनुष्य को होने वाली प्रतीति ही आत्मा के अस्तित्व का सर्वाेत्तम प्रमाण है[2]। किसी को यह नहीं मालूम होता कि ’मैं नहीं हूं’ इतना ही नहीं ; किंतु मुख से ’ मैं नहीं हूं’ शब्दों का उचारण करते समय भी ’नहीं हूं’ इस क्रियापद के कर्ता का, अर्थात् ’मैं’ का अथवा आत्मा का या ’अपना’ अस्तित्व वह प्रत्यक्ष रीति से माना ही करता है। इस प्रकार ’मैं’ इस अहंकारयुक्त सगुण रूप् से, शरीर में, स्वयं अपने ही को व्यक्त होने वाले आत्मतत्त्व के अर्थात् क्षेत्रज्ञ के असली, शुद्ध और गुणविरहित स्वरूप् का यथा शक्ति निर्णय करने के लिये वेदांतशास्त्र की उत्पत्ति हुई है[3]। तथापि, यह निर्णय केवल शरीर अर्थात् क्षेत्र का ही विचार करके नहीं किया जाता। पहले कहा जा चुका है, कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विचार के अतिरिक्त यह भी सोचना पड़ता है कि बाह्य सृष्टि (ब्रहाण्ड) का विचार करने से कौन सा तत्त्व निष्पन्न होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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