गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
अच्छा; अब जड़ देह को छोड़ कर चेतना को ही स्वामी मानें तो यह आपत्ति देख पड़ती है कि, गाढ़ निद्रा में प्राणादि वायु के श्वासोच्छवास प्रभृति व्यापार अथवा रूधिराभिसरण आदि व्यापार, अर्थात् चेतना, के रहते हुए भी, ’मैं’ का ज्ञान नहीं रहता[1]। अतएव यह सिद्ध होता है कि चेतना, अथवा प्राण प्रभृति का व्यापार, भी जड़ पदार्थ में उत्पन्न होने वाला एक प्रकार का विशिष्ट गुण है ;वह इन्द्रियों के सब व्यापारों की एकता करने वाली मूल शक्ति, या स्वामी, नहीं हैं [2]। ’मेरा’ और ’तेरा’ इन संबंधकारक के शब्दों से केवल अहंकाररूपी गुणों का बोध होता है; परन्तु इस बात का निर्णय नही होता कि ’अहं’ अर्थात् ’मैं’ कौन हूँ। यदि इस ’मै’ या ’अहं’ को केवल भ्रम मान लें, तो प्रत्येक की प्रतीति अथवा अनुभव वैसा नहीं है; और इस अनुभव को छोड़ कर किसी अन्य बात की कल्पना करना मानो श्रीसमर्थ रामदास स्वामी के निम्न वचनों की सार्थकता ही कर दिखाना है- ’’प्रतीति के बिना कोई भी कथन अच्छा नहीं लगता। वह कथन ऐसा होता है जैसे कुत्ता मुंह फैला कर रो गया हो! ’’[3]। अनुभव के विपरीत इस बात को मान लेने पर भी इन्द्रियों के व्यापारों की एकता की उपपत्ति का कुछ भी पता नहीं लगता! कुछ लोगों की राय है कि, ’मैं’ कोई भिन्न पदार्थ नहीं है; किंतु ’क्षेत्र’ शब्द में जिन-मन, बुद्धि, चेतना, जड़ देह आदि-तत्त्वों का समावेश किया जाता है, उन सब के संघात या समुच्चय को ही ’मैं’ कहना चाहिये। अब यह बात हम प्रत्यक्ष देखा करते हैं कि, लकड़ी पर लकड़ी रख देने से ही सन्दूक नहीं बन जाती, अथवा किसी घड़ी के सब कील-पुर्जो को एक स्थान में रख देने से ही उसमें गति उत्पन्न नहीं हो जाती। अतएव, यह नहीं कहा जा सकता कि केवल संघात या समुच्चय से ही कर्तव्य उत्पन्न होता है। कहने की आवशयकता, नहीं कि, क्षेत्र के सब व्यापार सिड़ी सरीखे नहीं होते; किंतु उनमें कोई विशिष्ट दिशा, उद्देश या हेतु रहता है। तो फिर क्षेत्ररूपी कारख़ाने में काम करने वाले मन, बुद्धि आदि सब नौकरों को इस विशिष्ट दिशा या उद्देश की ओर कौन प्रवृत करता है संघात का अर्थ केवल समूह है। कुछ पदार्थो को एकत्र करके उनका एक समूह बन जाने पर भी विलग न होने के लिये उनमें धागा डालना पड़ता है; नही तो वे फिर कभी [4]न कभी अलग अलग हो जायेगें। अब हमें सोचना चाहिये, कि यह धागा कौन सा है? यह बात नहीं है कि गीता को संघात मान्य न हो; परन्तु उसकी गणना क्षेत्र ही में की जाती है [5]। संघात से इस बात का निर्णय नहीं होता, कि क्षेत्र का स्वामी अर्थात् क्षेत्रज्ञ कौन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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