गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
कुछ लोग समझते हैं, कि समुच्चय में कोई नया गुण उत्पन्न हो जाता है। परन्तु पहले तो यह मत ही सत्य नहीं; क्योंकि तत्त्वज्ञों ने पूर्ण विचार करके सिद्धांत कर दिया जो पहले किसी रूप से अस्तित्त्व में नहीं था वह इस जगत में नया उत्पन्न नहीं होता[1]। यदि हम इस सिद्धान्त को क्षण भर के लिये एक ओर धर दें; तो भी यह प्रश्न सहज ही उपस्थित हो जाता है, कि संघात में उत्पन्न होने वाला यह नया गुण ही क्षेत्र का स्वामी क्यों न माना जाय इस पर कोई अर्वाचीन आधिभौतिक-शास्त्रज्ञों का कथन है कि, द्रव्य और उनके गुण भिन्न भिन्न नहीं रह सकते, गुण के लिये किसी न किसी अधिष्ठान की आवश्यकता होती है। इसी कारण समुच्चयोत्पन गुण के बदले वे लोग समुच्चय ही को इस क्षेत्र का स्वामी मानते हैं। ठीक है; परन्तु, फिर व्यवहार में भी ’अग्रि’ शब्द के बदले लकड़ी, ’विद्युत’ के बदले मेघ, अथवा पृथ्वी की ’आकर्षण-शक्ति’ के बदले पृथ्वी ही क्यों नहीं कहा जाता यदि यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि, क्षेत्र के सब व्यापार व्यवस्थापूर्वक उचित रीति से मिल जुल कर चलते रहने के लिये, मन और बुद्धि के सिवा, किसी भिन्न शक्ति का अस्तित्व अत्यंत आवष्यक है; और, यदि यह बात सच हो, कि उस शक्ति का अधिष्ठान अब तक हमारे लिये अगम्य है, अथवा उस शक्ति या अधिष्ठान का पूर्ण स्वरूप् ठीक ठीक नहीं बतलाया जा सकता है; तो यह कहना, न्यायोचित कैसे हो सकता है।कि वह शक्ति है ही नहीं? जैसे कोई भी मनुष्य अपने ही कंधे पर बैठ नहीं सकता; वैसे ही यह भी नहीं कहा जा सकता, कि संघात सम्बंधी ज्ञान स्वयं संघात ही प्राप्त कर लेता है। अतएव, तर्क की दृष्टि से भी, यही दृढ़ अनुमान किया जाता है, कि देहेंन्द्रिय आदि संघात के व्यापार जिसके उपभोग के लिये अथवा लाभ के लिये हुआ करते हैं, वह संघात से भिन्न ही है। यह तत्त्व, जो कि संघात से भिन्न है, स्वयं सब बातों को जानता है, इसलिये यह बात सच है कि सृष्टि के अन्य पदार्थों के सदृश यह स्वयं अपने ही लिये ’ज्ञेय’ अर्थात् गोचर हो नहीं सकता; परन्तु इससे उसके अस्तित्व में कुछ बाधा नहीं पड़ सकती, क्योंकि यह नियम नहीं है कि सब पदार्थो को एक ही श्रेणी या वर्ग, जैसे ’ज्ञेय’ में शामिल कर देना चाहिये। सब पदार्थों के दो वर्ग या विभाग होते हैं ; जैसे ज्ञाता और श्रेय- अर्थात् जानने वाले और जानने की वस्तु। और, जब एक-आध वस्तु दूसरे वर्ग (ज्ञेय) में शामिल नहीं होती, तब उसका समावेश पहले वर्ग (ज्ञाता) मे हो जाता है ; एवं उसका अस्तित्व भी (ज्ञेय) वस्तु के समान ही पूर्णतया सिद्ध होता है। इतना ही नहीं ; किंतु यह भी कहा जा सकता है, कि संघात के परे जो आत्मतत्त्व है वह स्वयं ज्ञाता है, इसलिये उसको होने वाले ज्ञानक यदि वह स्वयं विषय न हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसी अभिप्राय से बृहदारणयकोपनिषद में याज्ञवल्क्य ने कहा है ’’अरे! जो सब बातों को जानता है उसको जानने वाला दूसरा कहाँ से आ सकता हैं ’’- विज्ञातारमरे केन विजानीयात्[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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