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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
पंचम अध्यायश्रीकृष्ण का जन्मस्थान क्या है? ब्रह्मविद्य का हृदय ही श्रीकृष्ण का जन्मस्थान है। उसी में वसुदेव हैं, उसी में देवकी हैं, उसी में नन्द हैं, उसी में यशोदा हैं, उसी में सर्व है और उसी में सर्वज्ञ है। यदि किसी की अज्ञान सत्ता स्वीकार करोगे तो अपने अज्ञाना सत्ता स्वीकार करोगे तो अपने अज्ञानाश्रयत्व को मानना पड़ेगा। जो अज्ञात सत्ता को स्वीकार करेगा, उसे हम अज्ञानी हैं- यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। चाहे ईश्वर हो, चाहे जगत् हो, अज्ञात सत्ता की स्वीकृति अपने अज्ञानीत्व की स्वीकृति है। ये जो गीताजी हैं स्वयं प्रकाश ही हैं। ब्रह्मविद्या का ही एक नाम है गीता। ‘उपनिषत्सु योगशास्त्रे’- यह न महाभारत में है और न किसी प्राचीन प्रामाणिक पाठ में है। यह तो साक्षात् ब्रह्मविद्या ही है। किसी भी आचार्य ने इन पंक्तियों की व्याख्या ही नहीं की है। ‘शतसाहस्रयां संहितायां ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे उपनिषत्सु’- इसकी व्याख्या भी किसी पूर्वाचार्य ने नहीं की। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण का परम मित्र था। इसलिए वह उनसे खुले दिल से बात करता था। उसकी मनः स्थिति थी कि अरे बाबा, दिल में बात आ गयी तो अपने मित्र से क्या कपट। स्पष्टम्, स्पष्टम् बोल देना ही ठीक है। अर्जुन के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्यार है कि उसने उनके नाम के आगे न श्री लगाया, न श्रीमान् लगाया, न पूज्यपाद लगाया और न जगद्गुरु लगाया जब कि लोग लम्बे से लम्बे विश्लेषण विशिष्ट नाम का उच्चारण करते हैं। अर्जुन ने तो कोई भी विश्लेषण न लगाकर केवल ‘कृष्ण’ कहकर सम्बोधित किया। कृष्ण का अर्थ आकर्षण भी होता है, कृष्ण का अर्थ नित्य सत्ता भी होता है, कृष्ण का अर्थ चुम्बक भी होता है। कृष्ण का अर्थ काला भी होता है और कृष्ण का अर्थ किसान तो है ही। उसने कहा- सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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