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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायअज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: । यह जो तुम्हारे हृदय में अज्ञान आ गया है, वह संशय का पूर्वज है, संशय का बाप है? तो क्या बेटे को मारें। नहीं मत मारो, कोई बात नहीं। लेकिन अज्ञान-बाप को जरा मार डालो। ‘न रहेगा बांस न बजेगी बंशी।’ ज्ञान की तलवार उठाओ और आत्मा के ब्रह्म होने में जो संशय है उसे काट डालो। कैसे काटें महाराज! बोले कि ‘योगमातिष्ठ’- जो तुम कर्ता के रूप में कर सकते तो उसके पहले करके अंतःकरण शुद्ध कर लो और फिर आस्था करो। ‘योगमातिष्ठ’- माने योग प आस्था करके अंतःकरण शुद्ध करो। फिर परमात्मा से मिल जाओ। कैसे मिले? मिलने का उपाय? बस, बात यह है कि सोने से काम नहीं चलेगा और बैठने से भी काम नहीं चलेगा। इसलिए ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’[4] उठो, जागो, बड़ों के पास जाकर जानो। भगवान् कहते हैं कि अर्जुन, यह रोने का समय नहीं है, बैठने का भी समय नहीं है- ‘रथोपस्थ उपाविशत्’ [5]। यह उपवेशन का समय नहीं है। इसलिए खड़े हो जाओ और देखो, ज्ञान की तलवार हाथ मे लेकर अज्ञान को मारना ही पड़ता है। देखो, जब परमार्थ में भी खड़े होना पड़ता है, ज्ञान की तलवार हाथ में लेनी पड़ती है और उससे अज्ञान को मारना पड़ता है, तब कम से कम उस परमार्थ की प्राप्ति के लिए व्यवहार का नमूना तो खड़ा करो। बैठे से जड़े हो जाओ, हाथ में तलवार उठाओ और शत्रु को मारने के लिए टूट पड़ो। यह परमार्थ का युद्ध है- परमार्थ- अपरमार्थ का, ज्ञान अज्ञान का युद्ध है। इसमें पीठ मत दिखाओ, विजय प्राप्त करो!
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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