गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 255

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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चतुर्थ अध्याय

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ॥[1]
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥[2]


यहि कहो कि हम तो अज्ञानी हैं। क्या करें! अच्छा बाबा, मान कि कोई-कोई अज्ञानी पैदा होते हैं। लेकिन अज्ञानी हो तो श्रद्धा करो। बोले कि श्रद्धा भी तो सबके ऊपर नहीं होती। अच्छा, जिस पर होती हो उस पर करो! जब अज्ञान है तो श्रद्धा करनी ही पड़ेगी तब काम बन जायेगा। यदि श्रद्धा न कर सकते तो विचार करके संशय को मिटा लो। यदि तुम अज्ञान को मिटाने के लिए विचार करते नहीं और ज्ञानियों की बात पर श्रद्धा करते नहीं, तब क्या होगा? बड़ा बुरा होगा। ‘विनश्यति’- बस, विनाश ही तुम्हारे भाग्य में लिखा है। संशयालु पुरुष को न इस लोक में सुख है, न परलोक में सुख है, उसको कहीं भी साक्षात् अपरोक्ष सुख नहीं है। इसलिए योग के द्वारा कर्म का संन्यास करो और ज्ञान के द्वारा संशय के कारणभूत अविद्या का नाश करो। ब्रह्म के रूप में प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर कर्म-बन्धन के हेतु नहीं होते।

तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥[3]

यह जो तुम्हारे हृदय में अज्ञान आ गया है, वह संशय का पूर्वज है, संशय का बाप है? तो क्या बेटे को मारें। नहीं मत मारो, कोई बात नहीं। लेकिन अज्ञान-बाप को जरा मार डालो। ‘न रहेगा बांस न बजेगी बंशी।’ ज्ञान की तलवार उठाओ और आत्मा के ब्रह्म होने में जो संशय है उसे काट डालो। कैसे काटें महाराज! बोले कि ‘योगमातिष्ठ’- जो तुम कर्ता के रूप में कर सकते तो उसके पहले करके अंतःकरण शुद्ध कर लो और फिर आस्था करो। ‘योगमातिष्ठ’- माने योग प आस्था करके अंतःकरण शुद्ध करो। फिर परमात्मा से मिल जाओ। कैसे मिले? मिलने का उपाय? बस, बात यह है कि सोने से काम नहीं चलेगा और बैठने से भी काम नहीं चलेगा। इसलिए ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत[4] उठो, जागो, बड़ों के पास जाकर जानो।

भगवान् कहते हैं कि अर्जुन, यह रोने का समय नहीं है, बैठने का भी समय नहीं है- ‘रथोपस्थ उपाविशत्’ [5]। यह उपवेशन का समय नहीं है। इसलिए खड़े हो जाओ और देखो, ज्ञान की तलवार हाथ मे लेकर अज्ञान को मारना ही पड़ता है। देखो, जब परमार्थ में भी खड़े होना पड़ता है, ज्ञान की तलवार हाथ में लेनी पड़ती है और उससे अज्ञान को मारना पड़ता है, तब कम से कम उस परमार्थ की प्राप्ति के लिए व्यवहार का नमूना तो खड़ा करो। बैठे से जड़े हो जाओ, हाथ में तलवार उठाओ और शत्रु को मारने के लिए टूट पड़ो। यह परमार्थ का युद्ध है- परमार्थ- अपरमार्थ का, ज्ञान अज्ञान का युद्ध है। इसमें पीठ मत दिखाओ, विजय प्राप्त करो!

।। इस प्रकार यह ‘ज्ञान-कर्म-संन्यास योग’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 40
  2. 41
  3. 42
  4. (कठोप. 1.3.14)
  5. (1.46)

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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