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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
प्रथम अध्याय
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम्। श्रीमद्भगवद्गगीता, अर्थात् जो श्रीमान् भगवान् के द्वारा गायी हुई है- ‘श्रीमता भगवता गीता’। समास तो ऐसे भी हो सकता है- ‘श्रीमती भगवती गीता’। भगवद्गीता श्रीमती है, पर भगवद्गीता शब्द में गीता शब्द गौण है और भगवान् शब्द प्रधान है। इसलिए श्रीमान् विशेषण भगवान् का ही होना चाहिए, गीता का नहीं। स्मार्त धर्म में सर्वत्र वक्ता की प्रधानता मानी जाती है। वैदिक धर्म में वचन की प्रधानता मानी जाती है। वचन क्या है? वर्ण क्या है? उपनिषद् में अनुभवारूढ अर्थ की, लक्ष्यार्थ की वाच्यार्थ की प्रधानता से ग्रंथ के तीन विभाग होते हैं और तीनों का परम तात्पर्य एक ही निकलता है। इधर से देखो तो, उधर से देखो और सीधे देखो तो; जो सच्ची चीज है, वह सच्ची मालूम पड़ेगी। सत्य सत्य ही रहता है। अब ‘श्रीमता भगवता गीता’ को देखो। इसमें ‘कृता’ नहीं ‘गीता’ है। गीता पहले भी थी। पिछले द्वापर के पहले वाले द्वापर में श्रीकृष्णार्जुन हुए हैं और वहाँ भी गीता का गान किया है। उससे पहले भी श्रीकृष्ण-अर्जुन हुए हैं और वहाँ भी गीता का गान हुआ है। गानेवाले जो भजन गाता है, पद गाता है, पद गाता है, वह उस भजन का, पद का रचयिता हो- यह कोई आवश्यक नहीं है। दूसरे का बनाया हुआ पद लोग गाते ही हैं और अच्छा वही लगता है।
संगीत में केवल स्वर- ताल का अहंकार होता है और अपने बनाये हुए पद में, भजन में रसिया में, ठुमरी में, दादरा में, अपने कवित्व का भी अभिमान आ जाता है। श्रीकृष्ण में तो अहं की एक नया पैसा भी गुंजायश नहीं है। वे तो अर्जुन के अभिमान पर बार-बार ठोकर मारते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18.59
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