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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
प्रथम अध्यायइसलिए, गीता को ‘श्रीमता भगवता गीता’ अथवा ‘श्रीमती भगवती गीता’ कह सकते हैं। यदि आप ध्यान दें, तो यह ‘श्रीमतो भगवतो गीता’ भी है। गीता को क्रियापद मत मानो, तो यह संज्ञा हो जाएगी- यह पवित्र गीता शास्त्र है, यह शास्त्र किसका है? यह भगवान् का शास्त्र है। भगवत्कर्मक शास्त्र है। भगवत्कर्तृक शास्त्र है भगवान् इसके वक्ता भी हैं और भगवान् इसके विषय भी हैं। इसलिए यह भगवान् का शास्त्र है। इसमें भगवान् ही बोलते हैं और भगवान् का ही वर्णन है। इसलिए गीता क्रियापद भी है और गीता संज्ञा भी है। शंकराचार्य ने भी ‘गीताशास्त्रम्’ का व्यवहार किया है, श्रीयामुनाचार्य ने भी ‘गीताशास्त्रम्’ का व्यवहार किया है और श्रीरामानुजाचार्य ने भी ‘गीताशास्त्रम्’ का व्यवहार किया है। इसलिए यह ‘गीता’ निःसंदेह संज्ञा शब्द है। महाभारत में कथा आती है एक बार देवराज इन्द्र भगवान् श्रीकृष्ण पर बहुत प्रसन्न हुए। उनको यह बात भूल गयी कि श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं और मैं देवता हूँ। स्नेह में ऐसा हो जाता है। देवराज इन्द्र ने कहा कि श्रीकृष्ण तुम मुझसे कुछ वर माँगों। श्रीकृष्ण ने कहा कि अच्छी बात है, यदि आप वर देना ही चाहते हैं, तो यह वर दीजिए कि अर्जुन के साथ मेरी मैत्री सदा बनी रहे। तो, अर्जुन और श्रीकृष्ण मित्र हैं और ऐसे मित्र हैं कि अर्जुन के हृदय में श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के हृदय में अर्जुन बसते हैं। इनमें कौन आधार है और कौन आधेय- इसकी किसी को पता नहीं। इन्हीं दोनों की आपसी बातचीत है यह गीता। संजय तो इसको संवाद ही बोलते हैं। लेकिन बड़े-बड़े महात्माओं ने मिलकर इसका नाम दो अभिन्न मित्रों की पारस्परिक बातचीत रक्खा है। इसलिए जब सन् छब्बीस के आस-पास प्रयाग में गीता-ज्ञान यज्ञ हुआ था और जिसका आयोजन स्वर्गीय संगीताचार्य विष्णु दिगम्बरजी ने किया था तब वहाँ मञ्च पर आपलोगों जैसे ही एक अवधूत लंगोटी लगाये, हाथ में डंडा लिए आकर खड़े हो गये और बोले कि तुम लोग गीता पर क्या व्याख्यान देते हो? यह कोई ब्रह्मसूत्र थोड़े ही है कि जो चाहे सो व्याख्यान इसमें गढ़ दो। अरे, यह तो संवाद है। मित्र का मित्र के प्रति संवदन है। संवदन माने क्या होता है? संवाद शब्द का प्रयोग तो गीता में है ही-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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