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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
नवम अध्यायअब आओ नववें अध्याय में प्रवेश करें। इसमें भी बहुत मजेदार बात है। सांख्य और योग के ये छह अध्याय जो हैं, इन्हें मधुसूदन सरस्वती, केशव कश्मीरी, रामानुजाचार्य ने द्वितीय षट्क कहा है। इनमें से पहले दो अध्यायों में तो पहले सांख्य साधन, और योगसाधन दोनों को गीतोक्त तत्वज्ञान से समन्वित किया? अब जरा भक्तियोग पर भी एक नजर डालें औरउसे गीतोक्त योग के साथ समन्वित करें। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी महिमा का बड़ा भारी वर्णन किया है। एक महात्मा थे, जो अपनी महिमा का वर्णन कर रहे थे। कहते ते कि मैं शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हूँ, अद्वितीय हूँ, ब्रह्म हूँ। मैंने कहा कि महाराज, आप अपने मुँह मिया-मिट्ठू क्यों बनते हैं? अपनी इतनी तारीफ क्यों करते हैं? वे बोले कि देखो, मैं अपने को जितना जानता हूँ उतना दूसरे को जानते ही नही हैं; इसलिए मैं अपनी महिमा नहीं बताऊँगा तो दूसरे लोग क्या बतायेंगे? दूसरे लोग जानेंगे कैसे, कि हमारा क्या स्वरूप है, हमारी क्या महिमा है? डरना तो उन लोगों को चाहिए, जो देह-बुद्धि से हड्डी-मांस-चाम के एक परिछिन्न पुतले को ईश्वर के सिंहासन पर बैठाते हैं। जो परिच्छिन्नता को काटकर अपने स्वरूप का ब्रह्मरूप से वर्णन करते हैं, वे तो पहले अपने व्यक्तित्व की बलि चढ़ा लेते हैं, फिर परमात्मा का वर्णन करते हैं। जो व्यक्तित्व की बलि चढ़ाये बिना अपनी महिमा का वर्णन करता है, वह तो हड्डी-मांस-चाम की महिमा का ही वर्णन करता है। यहाँ तो अपना व्यक्तित्व है ही नहीं। इदं तु ते गुह्रातमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । “इदं तु ते गुह्यतमम्’- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि अर्जुन, मैं अब तुम्हें गुह्यतम बात बताता हूँ। अबतक क्या बता रहे थे महाराज! बोले कि अब तक गुह्य बात बता रहा था, अब गुह्यतम बात बताता हूँ। जैसे गुह्य, गुह्यतर, गुह्यतम होता है, वैसे ही मैंने एक फाटक पार किया तो उसका माल-मसाला दिखाया, फिर दूसरा फाटक पार किया तो उसका माल-मसाला दिखाया और अब तीसरे फाटक के भीतर तुम आ गये हो, अब देखो कि इसमें क्या है!
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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