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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जीव और जगत्, चेतन और जड दोनों को अपनी प्रकृति बतलाते हुए कहते हैं- भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । ‘र्पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-यह आठ प्रकार से विभक्त बहिर्जगत् और अन्तर्जगत् के समस्त उपादान मेरी ही प्रकृति है। यह अपरा प्रकृति है। इससे विलक्षण जीव या चैतन्य रूप मेरी दूसरी परा प्रकृति है, जिससे यह सारा जगत् विधृत है।’ वस्तुतः इस द्विविध प्रकृति के द्वारा ही भगवान् ने अपने को विश्व रूप में प्रकट किया है। प्रकृति प्रकृतिमान से भिन्न नहीं है, इसलिये यह जो कुछ है सब प्रकृतिमान् भगवान् का ही स्वरूप है। भगवान् ही इस रूप में प्रकट हो रहे हैं, इसी से आगे चलकर वे कहते हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। जैसे सूत की माला में सूत की मणियाँ गुँथी होती हैं, वैसे ही मेरी प्रकृति से बना हुआ सारा जगत् मेरी प्रकृति के द्वारा मुझ में गुथाँ है। मैं ही जल में रस हूँ, चन्द्र और सूर्य में प्रभा हूँ, समस्त वेदों में प्रणव हूँ, आकाश में शब्द हूँ, पुरुषों में पुरुषत्व हूँ। पृथ्वी में पवित्र गन्ध, अग्नि में तेज, जीवों में जीवन, तपस्वियों में तप, बुद्धिमानों में बुद्धि, तेजस्वियों में तेज, बलवानों में कामरागविवर्जित बल, मैथुनोत्पन्न प्राणियों में धर्माविरुद्ध काम हूँ [2]।फिर अपने भक्तों की श्रेणी और महिमा बतलाकर कहा कि जो दूसरे देवताओं को पूजते हैं, उनकी उन देवताओं के रूपों में मैं ही श्रद्धा करवा देता हूँ, देवताओं की पूजा भी मेरी ही पूजा है। देवताओं के द्वारा मिलने वाला फल भी मेरा ही विधान किया हुआ होता है। मूढ़लोग योग माया से समावृत मुझको पहचानते नहीं (गीता 7/25)। यहाँ भगवान् ने अपने रहस्य का कुछ अंश भली भाँति खोल दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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