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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
यहाँ पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने भजनीय स्वरूप का निर्देश किया। यहाँ तक भगवान् ने यह बतलाया कि ‘मैं ही लोकशिक्षक आदर्श पुरुष हूँ, मैं ही आदि उपदेष्टा जगद्गुरु हूँ, मैं ही धर्म-संस्थापक, दिव्य अवतारी और दिव्य कर्मी हूँ। मैं ही सब यज्ञ-तपों का भोक्ता हूँ, मैं ही सबका परमेश्वर हूँ; जो मुझे अपना सुहृद् समझ लेता है वह उसी क्षण परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। मैं ही सबमें हूँ और सब मेरे में ही हैं। मैं ही ज्ञानी, तपस्वी, कर्मी, सबका आराध्य हूँ।’ यद्यपि इस प्रसंग में संकेत से कई बार भगवान् ने अपना रहस्य बतलाया, पर इसके आगे अब स्पष्ट रूप से अपना रहस्य खोलकर बतलाने लगे। सातवें अध्याय के आरम्भ में ही आप कहते हैं- मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: । अर्जुन! मुझमें मन को आसक्त करके और मेरे शरणागत होकर योग युक्त होने पर मुझे ‘समग्र’ रूप में संशयरहित होकर किस प्रकार जाना जाता है, सो सुनो! मैं तुम्हें विज्ञान सहित उस ज्ञान को (रहस्य सहित मेरे तत्व को) पूरे तौर से खोलकर कहता हूँ। इस रहस्य को जान लेने पर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा।’ ‘समग्र’ को जानने पर शेष रहेगा भी क्या? यहाँ भगवान् यह भी कह देते हैं कि हजारों लाखों में से कोई बिरला ही मुझे जानने के लिये प्रयत्न करता है और उन प्रयत्न करने वालों में से भी कोई बिरला ही मुझे समग्र रूप से तत्वतः जानता है (गीता 7/3)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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