विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के रंणागण में अर्जुन मोह ग्रस्त होकर जब धनुष-बाण छोड़कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-‘भैया अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से हो गया? यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आचरित है, न स्वर्ग दायक है और न कीर्ति ही करने वाला है। पार्थ! तू नपंुसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर तू युद्ध के लिये उठ खड़ा हो।’ तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। परंतम! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर तू युद्ध के लिये उठ खड़ा हो।’ इससे भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में ही युद्ध के लिये आज्ञा दे दी; परंतु अर्जुन तैयार नहीं हुए और उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति के कारणों का निर्देश करते हुए कहा कि ‘मेरे लिये जो कल्याणकारक निश्चित साधन हो, वह मुझे बतलाइये। मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ। मुझ दीन को आप शिक्षा दीजिये’-‘शिष्यस्तेअहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’। अर्जुन भगवान् के प्रिय सखा थे, आहार-विहार में साथ रहते थे, पर न तो कभी अर्जुन ने शरणागत होकर कुछ पूछा, न भगवान् ने ही कुछ कहा। आज कहने का अवसर उपस्थित हो गया। परंतु भगवान् कुछ कहते, इससे पहले ही अर्जुन ने अपना मत प्रकट कर दिया, ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’-‘न योत्स्ये’। अर्जुन यदि यह न कहते तो शायद भगवान् ने गीता के अन्त में जो ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ का सर्वगुह्यतम उपदेश दिया है, अभी दे देते; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन अत्यन्त प्रिय थे। उनका सारा भार वे उठा लेना चाहते थे। वे स्वयं साध्य साधन बनकर अर्जुन को निश्चिन्त कर देना चाहते थे। परंतु भगवान् की कृपा तथा मंगल-विधान से ही अर्जुन बोल उठे और इससे अर्जुन को शरणागत के लिये पूर्णरूप से प्रस्तुत न देखकर भगवान् ने कर्म, भक्ति, ज्ञान की त्रिविध सुधा धारा बहायी। नहीं तो शायद जगत् इस महान् गीता-ज्ञान-सुधा-रस से वंचित ही रहता! अस्तु! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज