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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
निष्काम कर्म का स्वरूप
मैंने आपकी जीवनी भलीभाँति पढ़ ली है। आपका श्रीभगवान् के चरणों की ओर झुकाव हो रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। जिस-किसी की प्रेरणा से जीव भगवान् की ओर बढ़े, यही जीवन का परम पुरुषार्थ है। ‘सभी रूपों में एक ही भगवान् हैं’-यह धारणा बहुत उत्तम है। इस दृष्टि से भगवान् शंकर और भगवान् श्रीराम में कोई तात्विक भेद नहीं है। फिर भी आपने भगवान् श्रीराघवेन्द्र को इष्ट देव बनाकर जो साधना आरम्भ की है, वह परम मंगलमयी है। आप पूर्ण उत्साह, श्रद्धा, विश्वास और लगन के साथ अपना भजन चालू रखें, यही तो परम कल्याण का साधन है। अब रही अध्ययन और परीक्षा छोड़ने की बात, सो मेरी समझ से किसी को भी अपने न्यायोचित कर्तव्य का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। फिर आप तो कर्मयोगी बनना चाहते हैं; आप अध्ययन क्यों छोडें? फल की कामना और आसक्ति को छोड़कर लाभ-हानि, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता तथा जय-पराजय आदि में समान भाव रखते हुए भगवत्प्रीति के लिये अध्ययनादि सत्कर्म करते रहना ही वास्तविक कर्मयोग है। विहित कर्म से भागना तो इस कर्मयोग में निषिद्ध है। इस कर्मयोग से भगवान् की पूजा होती है और उसका फल होता है जीवन की सफलता-भगवान् की प्राप्ति। ‘स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः’-जीवन के चरम लक्ष्य- भगवान् को पा लेना ही परम सिद्धि है। और भगवान् की आज्ञा समझकर उनकी प्रसन्नता के लिये ही शास्त्रोक्त शुभ कर्म करना कर्म के द्वारा भगवान् का पूजन करना है। इस प्रकार विचार करके आप अपना अध्ययन पूर्ण करें। आप में ‘धन आदि की कामना नहीं है’ यदि ऐसा है तो यह और भी उत्तम है और ऊँचे उठाने वाली बात है। ऐसी दशा में आप आयुर्वेद के ज्ञाता होने पर जनता रूप भगवान् की विशेष सेवा कर सकेंगे। जब तक शरीर है, तब तक इसको भोजन-वस्त्र देना ही है, स्त्री और बच्चे तथा परिवार के अन्य लोग भी इसलिये आदरणीय हैं कि उनमें भी आपके इष्टदेव श्रीराम व्यापक हैं, अतः उन सबको अपने पिता-पत्नी मानकर नहीं, पिता-पत्नी आदि के वेश में भगवान् समझकर उनका आदर करना तथा यथायोग्य भरण-पोषण के द्वारा उनकी सेवा करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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