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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता का पर्यवसान साकार ईश्वर की शरणागति में है
श्रीमद् भगवद्गीता भगवान् सच्चिदानन्द की दिव्य वाणी है, इसका यथार्थ अर्थ भगवान् ही जानते हैं, हम लोग अपनी-अपनी भावना और दृष्टिकोण के अनुसार गीता का अर्थ निकालते हैं, यही स्वाभाविक भी है। परंतु स्वयं भगवान् की वाणी होने से गीता ऐसा आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है कि किसी तरह भी इसकी शरण ग्रहण करने से शेष में परमात्म प्रेम का पथ मिल जाता है। गीता पर अब तक अनेक टीकाएँ बनी हैं और भिन्न-भिन्न महानुभावों ने गीता का प्रतिपाद्य विषय भी भिन्न-भिन्न बतलाया है, उन विद्वानों और पूज्य पुरुषों के चरणों में ससम्मान नमस्कार करता हुआ, उनके विचारों का कुछ भी खण्डन करने की तनिक-सी इच्छा न रखता हुआ, मैं पाठकों के सामने अपने मन की बात रखना चाहता हूँ। शास्त्र प्रतिपादित ज्ञान योग, ध्यान योग, समाधियोग, कर्मयोग आदि सर्वथा उपादेय हैं और प्रसंगवश गीता में इनका उल्लेख भी पूर्ण रूप से है, परंतु मेरी समझ से गीता का पर्यवसान ‘साकार भगवान् की शरणागति’ में है और यही गीता का प्रधान प्रतिपाद्य विषय है। गीता के प्रधान श्रोता अर्जुन के जीवन से यही सिद्ध होता है। अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी सखा थे, उनके चुने हुए मित्र थे। आहार, विहार, भोजन, शयन-सभी में साथ रहते थे, अर्जुन ने भगवान् को अपने जीवन का आधार बना लिया था, इसीलिये उनके ऐश्वर्य की तनिक-सी भी परवा न कर मधुर रूपप्रियतम उन्हीं को अपना एकमात्र सहायक और संगी बनाकर अपने रथ की या जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथ में सौंप दी थी। दुर्याेधन उनकी करोड़ों सेना को ले गया, परंतु इस बात का अर्जुन के मन में कुछ भी असन्तोष नहीं था। उसके हृदय में सेनाबल-जडबल की अपेक्षा प्यारे श्रीकृष्ण के प्रेम-बल पर कहीं अधिक विश्वास था। इसीलिये भगवान् की आज्ञा से अर्जुन युद्ध में प्रवृत्त हुए थे; परंतु युद्ध क्षेत्र में पहुँचते ही वे इस भगवत् निर्भरता को भूल गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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