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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता का पर्यवसान साकार ईश्वर की शरणागति में है
भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से युद्ध में प्रवृत्त होने पर उन्हें बीच में अपनी बुद्धि लगाकर युद्ध को बुरा बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, किंतु बड़े समझदार अर्जुन के मन में यहाँ अपनी समझदारी का अभिमान जाग्रत् हो उठा और इसी से वे लीलामय प्रियतम भगवान् की प्रेरणा के विरुद्ध ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ कहकर चुप हो बैठे। यही अर्जुन का मोह था! एक ओर निर्भरता छूटने से चित्त अनाधार होकर अस्थिर हो रहा था, जिसके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ स्पष्ट रूप से प्रस्फुटित हो उठी थीं, परंतु दूसरी ओर ज्ञानाभिमान जोर दे रहा था, इसी पर भगवान् ने अर्जुन को प्रज्ञावादियों की-सी बातें कहने वाला कहकर चेतावनी दी। उनको स्मरण दिलाया कि ‘तुझे इस ज्ञान-विवेक से क्या मतलब है तू तो मेरी लीला का यन्त्र है, मेरे इच्छानुसार लीलाक्षेप में खेल का साधन बना रह।’ परंतु अपने ज्ञान के अभिमान से मोहित अर्जुन को इस तत्व की स्मृति नहीं हुई, इसीलिये भगवान् ने आत्मज्ञान, कर्म, ध्यान, समाधि, भक्ति आदि अनेक विषयों का उपदेश दिया, बीच-बीच में कई तरह से सावधान करने का प्रयत्न भी चालू रखा; अपना प्रभाव, ऐश्वर्य, सत्ता, व्यापकता, विभुत्व आदि स्पष्ट रूप से दिखलाने के साथ ही लीला का संकेत भी किया, बीच-बीच में चुटकियाँ लीं, भय दिखलाया, अर्जुन उनके ऐश्वर्यमय कालरूप को देखकर काँपने लगे, स्तुति की, परंतु उन्हें वास्तविक लीला कार्य की पूर्वस्मृति नहीं हुई। इससे अन्त में परम प्रेमी भगवान् ने 18 वें अध्याय के 64 वें श्लोक में अपने पूर्वकृत उपदेश की गौणता बतलाते हुए अगले उपदेश को ‘सर्वगुह्यतम’ कहकर अपना हृदय खोलकर रख दिया। यहाँ का प्रसंग भगवान् की दयालुता और उनके प्रेमानन्त समुद्र का बड़ा सुन्दर उदाहरण है। अपना प्रिय सखा, अपनी लीला का यन्त्र, निज ज्ञान के व्यामोह में लीला कार्य को विस्मृत हो गया, अतएव उससे कहने लगे-‘प्रियवर, मेरे परम प्यारे! इन पूर्वोक्त उपदेशों से तुझे कोई मतलब नहीं है, तू अपने स्वरूप को पहचान, तू मेरा प्यारा है-अपना है, इस बात का स्मरण कर, इसी में तेरा हित है मेरे ही कार्य के लिये मेरे अंश से तेरा अवतार है। अतएव तू मुझी में मन लगा ले, मेरी ही भक्ति कर, मेरी ही पूजा कर, मुझे ही नमस्कार कर, मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, तू मेरा प्यारा अंग है, मुझी को प्राप्त होगा, पूर्वाेक्त सारे धर्म का आश्रय या उनमें अपना कर्तव्य ज्ञान छोड़कर केवल मेरी लीला का यन्त्र बना रह, एक मेरी ही शरण में पड़ा रहा, तुझे पाप-पुण्य से क्या मतलब, तुझे चिन्ता भी कैसी, मैं आप ही सब सँभालूँगा। मेरा काम मैं आप करूँगा, तू तो अपने स्वरूप को स्मरण कर, अपने अवतार के हेतु को सिद्ध कर, मुझ लीलामय की विश्व लीला में लीला का साधन बना रह।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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