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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता का पर्यवसान साकार ईश्वर की शरणागति में है
बस, इस उपदेश से अर्जुन की आँखें खुल गयीं, उन्हें अपने स्वरूप की स्मृति हो गयी। ‘मैं लीला का साधन हूँ, भगवान् के हाथ का खिलौना हूँ, इनकी शरण में पड़ा हुआ किंकर हूँ’ यह बात स्मरण हो आयी, तुरंत मोह नष्ट हो गया और तत्काल अर्जुन लीला में सम्मिलित हो गये, लीला आरम्भ हो गयी। अर्जुन ने भगवान् के उपर्युक्त गीतोक्त अन्तिम वचनों को सुनते ही पिछले ज्ञानोपदेश से मन हटा लिया। अपने-आपको भगवान् की लीला में समर्पित करके अर्जुन निश्चिन्त हो गये और लीलामय की इच्छा तथा संकेतानुसार प्रत्येक कार्य करते रहे। महाभारत की संहार लीला समाप्त हुई, अश्वमेध लीला हुई, अब अर्जुन को शान्ति के समय भगवान् की ज्ञानलीला में सम्मिलित होने की आवश्यकता जान पड़ी, परंतु गीतोक्त ज्ञान को तो उन्होंने कोई परवा ही नहीं की थी। उन्हें कोई आवश्यकता भी नहीं थी, क्यों कि वे तो ‘सर्वोत्तम सर्वगुह्यतम’ शरणागति का परम मन्त्र ग्रहणकर भगवान् के यन्त्र बन चुके थे। भगवान् दूसरी लीला के लिये द्वारका जाने की तैयारी करने लगे। अर्जुन को इधर ज्ञान लीला के प्रसार में साधन बनना था, इससे एक दिन उन्होंने एकान्त में भगवान् से पूछा कि ‘हे प्रियतम! हे लीलामय! संग्राम के समय मैं आपके ‘माहात्म्यम्’ और ‘रूपमैश्वरम्’ को जान चुका हूँ, उस समय आपने मुझे जिस ज्ञान का उपदेश दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ, आप शीघ्र द्वारका जाते हैं, मुझे वह ज्ञान एक बार फिर सुना दीजिये। मेरे मन में उसे फिर से सुनने के लिये बार-बार कौतूहल होता है।’ भगवान् ने अर्जुन को उलाहना देते हुए कहा कि ‘तैंने बड़ी भूल की, जो ध्यान देकर उस ज्ञान को याद नहीं रखा, उस समय मैंने योग में स्थित होकर ही तुझे ‘गुह्य’ सनातन ज्ञान सुनाया था, (‘श्रीवितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।’ महा0, अ0 16/9) अब मैं उसे उसी रूप में दुबारा नहीं सुना सकता, तथापि तुझे दूसरी तरह से वह ज्ञान सुनाता हूँ।’ (इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान् वह ज्ञान पुनः सुनाने में असमर्थ थे, अचिन्त्यशक्ति सच्चिदानन्द के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है।) भगवान् का उलाहना देना युक्ति युक्त ही है; क्योंकि शरणागति के ‘सर्वगुह्यतम’ भाव में स्थित होने पर भी सब तरह की लीलाविस्तार में सम्मिलित होने के लिये ज्ञानयोगादि के भी स्मरण रखने की आवश्यकता थी, लीला-कार्य में पूर्ण योग देने के लिये इसका प्रयोजन था, इसी लिये भगवान् ने फटकार बतायी, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि अर्जुन भगवत्-शरणागति रूप गीता के प्रतिपाद्य को भूल गये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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