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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता का पर्यवसान साकार ईश्वर की शरणागति में है
श्रीकृष्ण-शरणागति में तो उनका जीवन रँगा हुआ था, दूसरे शब्दों में श्रीकृष्ण-शरणागति के तो वे मूर्तिमान् जीते-जागते स्वरूप थे। प्रेम और निर्भरता के नशे में ज्ञान की वे विशेष बातें, जो जगत् के लोगों के लिये आवश्यक थीं, अर्जुन भूल गये थे, जो भगवान् ने ‘अनुगीता’ के स्वरूप में प्रकारान्तर से उन्हें फिर समझा दी। अनुगीता के आरम्भ में भगवान् के द्वारा कथित ‘गुह्स’ शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् ने उसी ज्ञान के भूल जाने के कारण अर्जुन को फटकारा है, जो ‘गुह्य’ था। न कि ‘सर्वगुह्यतम’। अनुगीता के प्रसंग से अर्जुन को ज्ञानभ्रष्ट समझना, गीतोक्त उपदेश को विस्मृत हो जाने वाला जानना और भगवान् की वक्तृत्व और स्मृतिशक्ति में मर्यादितपन मानना हमारी भूल के सिवा और कुछ नहीं है। गीता के प्राण, गीता का हृदय, गीता का उद्देश्य, गीता का ज्ञान, गीता की गति, गीता का उपक्रम-उपसंहार और गीता का तात्पर्यार्थ ‘साकार भगवान् की शरणागति’ है, उसके सम्बन्धी में अर्जुन को कभी व्यामोह नहीं हुआ। इस लोक में तो क्या इससे पहले और पीछे के सभी लोकों और अवस्थाओं में वह इसी शरणागत सेवक की स्थिति में रहे। इसीलिये महाभारतकार ने अर्जुन की सायुज्यमुक्ति नहीं बतलायी जो सत्य तत्व है; क्योंकि लीलामय की लीला में सम्मिलित रहने वाले परम ज्ञानी नित्यमुक्त अनुचर निजजनों के लिये मुक्ति अनावश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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