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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
भगवान् ने गीता में गुह्य-से-गुह्य ज्ञान का उपदेश किया। जगत् के विविध क्षेत्रों के सभी अधिकारियों के लिये यह महान् दिव्य शिक्षक प्रस्तुत हो गयी। ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, कर्मयोगी ही नहीं, संसार के विविध उलझनों में फँसे हुए तमोग्रस्त सभी लोगों के लिये गीता दिव्य प्रकाश स्तम्भ बनकर सभी को उनके अधिकारानुसार पथ-प्रदर्शन करने लगी। इसी से अरण्यवासी विरक्त साधु के हाथ में भी गीता रहती है और क्रान्तिकारी युवक के हाथ में भी गीता है। दोनों ही उससे प्रकाश पाते हैं। गीता के उपदेश में बीच-बीच में भगवान् ने अत्यन्त रहस्यमय गुह्यतम बातें भी कहीं-जैसे ‘राजविद्या-राजगुह्य’ रूप नवम अध्याय में स्वयं सारे योग-क्षेम का भार उठाने की प्रतीज्ञा करते हुए अन्त में स्पष्ट कह दिया- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। ‘तू मुझ (श्रीकृष्ण)-में मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको नमस्कार कर। इस प्रकार अपने को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।’ भगवान् ने अपने से प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ने के लिये यह ‘राजगुह्य-गुह्यतम’ आदेश दे दिया। पर अर्जुन कुछ नहीं बोले। तदनन्तर चैदहवें अध्याय के अन्त में भगवान् ने अपने को ‘ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा’ बतलाकर अर्जुन का ध्यान खींचा। इसके पश्चात् पंद्रहवें अध्याय में बहुत स्पष्ट शब्दों में अपने को ‘क्षर’ (नाशवान् जडवर्ग क्षेत्र)-से सर्वथा अतीत और अविनाशी ‘अक्षर’-जीवात्मा से या ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’ (गीता 8/3)-के अनुसार ब्रह्म से उत्तम बतलाकर कहा- यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् । ‘भारत! जो मूर्ख नहीं है, वह ज्ञानी पुरुष मुझ (श्रीकृष्ण)-को ही ‘पुरुषोत्तम’ जानता है और वही सर्वज्ञ है। इसलिये वह सब प्रकार से निरन्तर मुझ (श्री कृष्ण)-को ही भजता है। निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया। इसको तत्व से जानकर पुरुष बुद्धिमान् और कृतकृत्य हो जाता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 (15/19-20)
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