विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
मेरे जन्म-कर्म को तत्वतः जानना होगा। फिर कर्मरहस्य, यज्ञ और ज्ञान की महिमा आपने बतलायी। पाँचवें अध्याय में कर्मयोग और संन्यास का निर्णय, सांख्य योगी और निष्काम कर्मयोगी मुक्त पुरुषों के लक्षण आदि बतलाकर अन्त में अपने रहस्य के पर्दे को जरा हटाकर कहा कि ‘सारे यज्ञ और तपों का भोक्ता मैं ही हूँ, कोई किसी देवता के नाम से यज्ञ-तप करे, सब मुझको ही पहुँचता है। मैं समस्त लोकों का महान् ईश्वर हूँ और ऐसा होते हुए ही मैं जीवमात्र का सुहृद् हूँ। मेरे इस स्वरूप को जान लेने से ही शान्ति प्राप्त हो जाती है [1]।’ यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने यह दिखलाया कि तुम मुझे अपना सखा समझते हो, फिर भी चिन्ता क्यों करते हो? समस्त कर्मों का नियन्ता, सबका महेश्वर जिसका सुहृद् सखा हो, यह बात जो जान ले वह दुःख, शोक ओर संताप को कैसे प्राप्त हो सकता है? वह आसक्ति, अहंकार का शिकार कैसे हो सकता है? फिर छठे अध्याय में आपने योग के साधन और स्वरूप की भलीभाँति व्याख्या करके, सिद्ध योगियों के लक्षण बतलाकर कहा कि ‘जो मुझको सबमें और सबको मुझमें देखता है, जो सब भूतों में स्थित मुझ एक को भजता है वह सब कुछ करता हुआ मुझमें ही बर्तता है [2]। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ‘अहम्’ का तात्विक स्वरूप दिखलाया। और अन्त में कहा कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी सबकी अपेक्षा इस प्रकार मुझको जानने वाला योगी श्रेष्ठ है और योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ वह श्रद्धावान् योगी है जो अन्तरात्मा से मुझको ही भजता है[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 5/29)1भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। स्हृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूतप्राणियों का सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।
- ↑ (गीता 6/30-31)2यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोअपि स योगी मयि वर्तते।।
- ↑ (गीता 6/46-47)1जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है,उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। जो पुरुष एकी भाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है। 1. तपस्विभ्योअधिको योगी ज्ञानिभ्योअपि मतोअधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्तमो मतः।। योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है; इससे अर्जुन! तू योगी हो। सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज