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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
और सचमुच अर्जुन इस शरणागति के सिवा और सब धर्मों के ज्ञान को भूल गये। इसका पता लगता है तब जब अश्वमेध पर्व में अर्जुन भगवान् से उन धर्मों को फिर से सुनना चाहते हैं और कहते हैं कि ‘मैं उनको भूल गया।’ उस समय भगवान् उन्हें उलाहना देते हुए कहते हैं कि ‘मैंने उस समय तुम्हें ‘गुह्य’ ज्ञान सुनाया था जो स्वरूप भूत शाश्वत-धर्म था।’ यहाँ ‘गुह्य’ शब्द से यह ध्वनित होता है कि भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रेष्ठ वचन (‘परमं वचः’)-के रूप में जो ‘सर्वधर्मत्याग’ करके अनन्य शरणागति का ‘सर्वगुह्यतम’ उपदेश किया था उसे अर्जुन नहीं भूले थे, वे तो उसी ‘गुह्य’ को भूल से गये थे, जिसका त्याग करने के लिये भगवान् ने कहा था। इसी से यहाँ ‘गुह्य’ शब्द आया है। अतएव यही निष्कर्ष निकलता है कि इस श्लोक में सब धर्मों को त्याग कर अनन्य शरणा गति का ही उपदेश है और यही गीता का मुख्य तात्पर्य है। प्रश्न- गीता में भगवान् ने सब धर्मों का त्याग करके शरण आने की बात कही है। इस सब धर्मों के त्याग का आप क्या अर्थ मानते हैं? धर्मों का त्याग न? और यदि यही अर्थ है तथा भगवान् की भक्ति में सभी धर्मांे का त्याग आवश्यक है, तो फिर एक लौकिक धर्म की परवा न करके और लोकनिन्दा से न डरकर गुरु-सेवन में क्या आपत्ति है? उत्तर- गीता में कहे हुए भगवान् के ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ (18/66)-का अर्थ बहुत प्रकार से किया जाता है। परंतु मैं मान लेता हूँ कि इसका अर्थ ‘सब धर्मांे का त्याग’ ही है, और वस्तुतः मैं मानता भी यही हूँ। भगवच्छरणागति की एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें भक्त धर्माधर्म के स्तर से बहुत ऊपर उठ जाते हैं। उनका धर्म ही होता है-धर्मा धर्म के ऊपर उठकर केवल श्रीभगवान् के हाथ का यन्त्र बने रहना। भगवान् जो करावें सो करना, जैसे नचावें वैसे ही नाचना। परंतु यह स्थिति सहज ही नहीं प्राप्त होती। पूर्ण वैराग्य होने पर ही इस स्थिति की ओर साधक चल सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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