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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
श्रीमद्भागवत में श्री भगवान् ने कहा है- तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विड्येत यावत।
‘उत्तम (श्रेष्ठ) वही है जो मेरे बतलाये हुए समस्त धर्माचरण रूप गुणों और अधर्माचरण रूप दोषों को भलीभाँति त्यागकर मुझको ही भजता है।’ परंतु ऐसी अवस्था सहसा नहीं प्राप्त होती। इसके लिये अर्जुन की भाँति अनासक्त और निष्काम होने की सतत साधना करनी पड़ती है। स्त्री अपने पति को क्यों पूजती है, शिष्य गुरु की सेवा क्यों करता है? भगवान् को पाने के लिये पति और गुरु को भगवान् का प्रतिनिधि या प्रतीक मानकर! पति या गुरु में भगवान् दर्शन करके उनकी पूजा की जाती है तभी तक, जब तक जगत्पति नहीं मिल जाते। परंतु जगत्पति के मिलने के लिये इनकी पूजा आवश्यक है। जब पूजा सिद्ध हो जाती है, प्रत्यक्ष जगत्पति मिल जाते हैं, तब इनकी पूजा का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। फिर गोपियों की भाँति लज्जा, धैर्य, कुल, मान, भय-सब का त्याग कर धर्माधर्म से ऊपर उठकर श्रीकृष्ण को ही परम प्रियतम घोषित करने में आपत्ति नहीं। परंतु पहले ऐसा नहीं किया जाता। पहले तो उनका प्रतिमा पूजन ही होता है। अवश्य ही जो स्त्री भगवान् को भूलकर पति की या जो शिष्य भगवान् की परवा छोड़कर गुरु की सेवा करते हैं, वे पति या गुरु की सेवा के फल में नश्वर वस्तु ही पाते हैं, भगवान् को नहीं पाते। इसलिये उनका भी उद्देश्य तो भगवत्प्राप्ति ही होना चाहिये। तथापि छत पर चढ़ने के लिये जैसे सीढ़ियों की जरूरत होती है, वैसे ही ‘सर्वधर्मत्याग’ रूपी परम धर्म तक पहुँचने के लिये धर्मपालन की आवश्यकता होती है। इसलिये जब तक भोगों में पूर्ण वैराग्य नहीं है, और जब तक भक्ति में पूर्ण श्रद्धा नहीं है, तब तक सर्वधर्मत्याग की कल्पना नहीं की जा सकती। गुरु-सेवन तो उत्तम है, परंतु धर्म को मानते हुए-धर्म की रक्षा करते हुए ही! लोकनिन्दा यदि धर्म-सम्मत है, तो लोकनिन्दा से भी डरना ही चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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