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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
इस श्लोक के द्वारा मानो भगवान् ने रत्नों की पेटी के ढक्कन लगा दिया। अतएव इस श्लोक में जो ‘सर्वधर्मत्याग’ की आज्ञा है, वह ठीक इसी अर्थ में है। इस प्रकार सर्वधर्मत्याग करके शरणागत हो जाने वाला पुरुष सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, किसी भी ऊहापोह में न पड़कर वह अपने शरण्य के कथनानुसार सहज आचरण करता है। सहज रूपों में ही शरण्य के अनुकूल आचरण करना उसका एकमात्र धर्म होता है। वह और किसी धर्म को जानता ही नहीं। सब धर्मों को भुलाकर वह इस एक ही धर्म का अनन्य सेव करता है। यह ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ श्लोक ही भगवद्गीता का अन्तिम उपदेश है। अब अर्जुन इस तत्व को जान-मान गये हैं। उनका मुखमण्डल एक परम स्निग्ध उज्वल दीप्ति से चमचमा उठा है। तब भगवान् पुनः निश्चय करने के लिये उनसे पूछते हैं, क्यों अर्जुन! मेरे इस सर्वगुह्यतम उपदेश को तूने पूरा मन लगाकर सुना? और इसे सुनकर तेरा मोह दूर हुआ? अर्जुन उत्तर में कहते हैं- नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । ‘अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली। अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ अतः आप जो कहेंगे, वही करूँगा।’ इस श्लोक में अर्जुन के द्वारा शरणागति की स्वीकृति है अथवा यही शरणागति का स्वरूप है। अर्जुन कहते हैं-‘मेरे मोह का नाश हो गया (‘नष्टो मोहः’) मैं अहंकारवश कह रहा था कि युद्ध नहीं करूँगा। वह मोह था। अब मुझे स्मरण हो आया कि मैं तो आप यन्त्री के हाथ का यन्त्र मात्र हूँ (‘स्मृतिर्लब्धा’)। पर यह मोहनाश और स्मृति की प्राप्ति भी मेरे पुरुषार्थ से नहीं हुई, यह आपकी शरणागत-वत्सलतारूप कृपा से हुई है (‘त्वत्प्रसादात्’) और इस कृपा की भी मैंने साधन से उपलब्धि नहीं की, अच्युत! आप अपने विरद से कभी च्युत नहीं होते, अतः स्वभाव से आपने कृपा की है। अब मैं यन्त्ररूप में स्थित हो गया (‘गतसन्देहः’)।अब तो बस, आप जो कुछ कहेंगे, वही करुँगा (‘करिष्ये वचनं तव’)।’ यही ‘शरणागति-धर्म’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 (18/73)
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