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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
भगवान् ने इन शब्दों के द्वारा अर्जुन से कहा है कि अब तक जो बात कही, वह तो गुप्त-से-गुप्त होने पर भी प्रायः सब को कही जा सकती थी। अब यह ऐसी बात है, जिसका सम्बन्ध तुझसे और मुझसे ही है। तू क्यों किसी बखेड़े-झगड़े में पड़ता है? मन लगाने योग्य, भक्ति-सेवा करने योग्य, पूजा करने योग्य और नमस्कार करने योग्य समस्त चराचर विश्व में और विश्व से परे भी यदि कोई है तो वह एकमात्र मैं ही हूँ। लोग मुझे न जान-मानकर इधर-उधर भटकते रहते हैं। मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि जो यों मान लेता है, वह मुझ ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा स्वरूप मुझ भगवान् को पाता है। तू मेरा प्रिय है-अन्तरंग इष्ट है। इसी से अपना निज का यह महत्वपूर्ण रहस्य तुझे बतलाया है। तू यही कर। अब तक जो कुछ धर्म मैंने बतलाये हैं, उन सबकी तुझे आवश्यकता नहीं, छोड़ उन सबको। सब धर्मों का परम आश्रय तो मैं हूँ, तू एकमात्र मेरी शरण में आ जा। धर्मों के त्याग से पाप का भय हो तो तू डर मत, जरा भी चिन्ता न कर-तुझे सारे पापों से मैं छुड़ा दूँगा। असल बात तो यह है- जैसे सूर्य के सामने अन्धकार नहीं आ सकता,वैसे ही मेरी शरण में आये हुए के समीप पाप-ताप आ ही नहीं सकते। तू निश्चिन्त हो जा। अर्जुन ने इसकी मूक स्वीकृति दी-मुखमण्डल पर विलक्षण आनन्द की छटा लाकर। तब भगवान् ने कहा-देख भैया! यह अत्यन्त ही गोपनीय रहस्य की बात है- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताप कदाचन । ‘यह सर्वगुह्यतम तत्व किसी भी काल में जो तपरहित हो- जो सर्वत्याग रूपी कष्ट सहने को न तैयार हो, जो मेरा भक्त न हो, जो सुनना न चाहता हो और जो मुझ में दोष देखता हो- उससे कभी कहना ही मत।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 (गीता 18/67)
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