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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सर्वधर्मान् परित्यज्य
भगवान् ने कहा- सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः। ‘भैया! तू ‘सर्वगुह्यतम’ मेरे परम श्रेष्ठ वचन को फिर भी सुन। तू मेरा दृढ़ इष्ट है-अतिशय प्रिय है, अतएव तेरे ही हित के लिये यह कह रहा हूँ।’ अभिप्राय यह कि भगवान् अर्जुन को उदास देखकर उन्हें गले लगाकर अब वह बात कहना चाहते हैं, जो ‘सर्वगुह्यतम’ है। गुप्त (गुह्य), गुप्तों में भी गुप्त (गुह्यतर), उसमें भी गुप्त (गुह्यतम) बात हुआ करती है, पर यह तो गुह्यतम में भी सबसे अधिक गुह्यतम-’सर्वगुह्यतम’ है, तो अत्यन्त अन्तरंगता हुए बिना कही जा सकती ही नहीं। तू मेरा प्रिय ही नहीं, ऐसा प्रिय है कि उसमें कभी अन्तर पड़ सकता। इसी से तेरे ही हित के लिये यह बात कह रहा हूँ-और यह ऐसी बात है कि ‘जो सबसे श्रेष्ठ है, पहले भी इसे कह चुका हूँ, तूने ध्यान नहीं दिया। अब तू फिर से सुन।’ इस प्रकार कहकर मानो भगवान् ने वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसकी भूमिका बाँधी है। अथवा अब अगले दो श्लोकों के रूप में जो महान् दिव्य रत्न प्रदान करना चाहते हैं, उन्हें सुरक्षित रखने के लिये मंजूषा के नीचे का हिस्सा दिखाया है। इसमें वे रत्न रखकर फिर उसके ऊपर का ढक्कन देंगे 67 वें श्लोक के रूप में। वे अमूल्य परम गोपनीयों में गोपनीय रत्न क्या हैं- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । ‘तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको ही प्रणाम कर। यों करने से तू मुझको ही प्राप्त होगा-यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। तू सब धर्मों को छोड़कर केवल एक मुझ परमपुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 (गीता 18/65-66)
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