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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पुरुषोत्तम-तत्व
तत्वं विशुद्धसत्वासु शक्तिर्विद्यात्मिका परा। ‘आप ही तत्वात्मिका, विशुद्ध सत्वमयी, भगवान् की स्वरूपाशक्ति एवं परा विद्या हैं। आप ही विष्णु के परामानन्द पंुज को धारण करती हैं (अर्थात् उनका आनन्दांश हैं)। आपकी एक-एक कला में अत्याश्चर्यमय ऐश्वर्य भरा हुआ है; ब्रह्मा, रुद्र आदि महान् देवगण भी आपके स्वरूप को कठिनता से जान सकते हैं। देवि! बड़े-बड़े योगीश्वरों के ध्यान में भी आप नहीं आतीं। मेरी बुद्धि में तो यह आता है कि आप ही अखिल जगत् की अधीश्वरी हैं और इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति आपके ही अंश हैं। माया से बालक बने हुए मायेश्वर भगवान् महाविष्णु की जितनी भी अचिन्त्य मायाविभूतियाँ हैं, वे सब आपकी ही अंशाशरूपिणी हैं। आप ही आनन्द रूपिणी शक्ति हैं और आप ही परमेश्वरी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।’ इस वर्णन से यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि भगवान् की यह स्वरूपभूता शक्ति जगत् को अज्ञान से ढक रखने वाली जड ‘माया’ कदापि नहीं है। यह भगवान् की आनन्द स्वरूपा ह्नादिनी शक्ति है, इसी को लेकर भगवान् अवतरित हुआ करते हैं। यह अभिन्न शक्ति-शक्तिमान् स्वरूप ही ‘पुरुषोत्तम-तत्व’ है। इसी पुरुषोत्तम-तत्व के सम्बन्ध में देवी पार्वती के प्रति भगवान् शंकर के ये वचन हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (पद्य0, पा0 40/53-57)
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