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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पुरुषोत्तम-तत्व
‘शंकर! मेरे जिस अलौकिक रूप को आज अपने देखा है, वह विशुद्ध प्रेम की घनमूर्ति है और सच्चिदानन्दस्वरूप है। उपनिषदों के समुदाय मेरे इसी रूप को निराकार, निर्गुण, सर्वव्यापी, निष्क्रिय, परात्पर ब्रह्म कहते हैं। इसमें प्रकृतिजन्य गुणों का अभाव होने से और मेरे अंदर गुणों की सत्ता को असिद्ध मानकर वे मुझे ‘निर्गुण’ कहते हैं और अनन्त होने से मुझे ‘ईश्वर’ कहते हैं और मेरा रूप प्राकृतिक नेत्रों से देखने में नहीं आता, इसलिये महेश्वर! ये समस्त वेद मुझे रूप रहित अर्थात् ‘निराकार’ कहते हैं। अपने चैतन्यांश से सर्वव्यापक होने के कारण पण्डितगत मुझे ‘ब्रह्म’ कहते हैं; और इस विश्व प्रपंच का कर्ता न होने से वे मुझे ‘निष्क्रिय’ कहते हैं; क्योंकि शिव! स्वयं मैं सृष्टि आदि कुछ भी कार्य नहीं करता; ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप मेरे अंश ही माया के गुणों से सृष्टि आदि कार्य करते हैं।’ यह भगवान् का निर्गुण, निराकार और सच्चिदानन्द स्वरूप है। इसी स्वरूप में जो भगवान् की अभिन्न स्वरूपभूता महाशक्ति हैं, जिनका एक अंश परा प्रकृति है और जिनके न्यूनाधिक शक्ति सम्पन्न अनेकों छोटे-बड़े रूप हैं, जो सृष्टि के सृजन, पालन और संहार में भगवान् के अंशावतार वस्तुतः अभिन्नस्वरूप त्रिदेवों की सहायता करती हैं, वे मूलशक्ति श्री राधा जी हैं। ये भगवान् श्रीकृष्ण से सर्वथा अभिन्न हैं, केवल लीला के लिये ही एक ही भगवान् के इन दो रूपों का प्रकाश है। देवर्षि नारद ने श्री राधा जी का स्तवन करते हुए कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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