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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
भगवान् ने उत्तर में कहा- मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । ‘हे अर्जुन! जो मुझ साकार रूप परमेश्वर में मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धा से युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासना में लगे रहते हैं, मेरे मत से वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान् कहते हैं, ‘मेरे द्वारा बतलायी हुई विधि के अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं, मेरे मत में वे ही श्रेष्ठ हैं।’ यहाँ प्रथम श्लोक के ‘त्वाम्’ और इस श्लोक के ‘माम्’ शब्द अव्यक्त-निराकार वाचक न होकर साकार वाचक ही हैं; क्योंकि अगले श्लोक में अव्यक्तो पासना का स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्द से इससे सर्वथा पृथक् कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान् के मत में उनके साकार रूप के उपासक ही अति श्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्याय के अन्तिम श्लोक के अनुसार उनको भगवत्-प्राप्ति होना निश्चित है। परंतु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न श्रेणी की है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रम की सम्भावना को सर्वथा मिटा देने के लिये भगवान् स्वयमेव कहते हैं- ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । ‘समस्त इन्द्रियों को वश में करके, सर्वत्र समयबुद्धि सम्पन्न हो, जीवमात्र के हित में रत हुए, जो पुरुष अचिन्त्य (मन-बुद्धि से परे),सर्वत्र (सर्वव्यापी), अनिर्देश्य (अकथनीय), कूटस्थ (नित्य एकरस), धु्रव (नित्य),अचल, अव्यक्त (निराकार) अक्षर ब्रह्मरूप की निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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