विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
भगवान ने कृपया पूर्वक अर्जुन को दीप चक्षु प्रदान कर अपना विराट स्वरूप दिखलाया, उस विकराल काल स्वरूप को देखकर अर्जुन के घबराकर प्रार्थना करने पर अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन कराये, तदान्तर मनुष्य-देहधारी सौम्य रसिकशेखर श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण रूप दिखाकर उनके चित्त में प्रादु भूर्त हुये भय और अशान्ति का नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंग में भगवान् ने अपने विराट और चतुर्भुज रूप की महिमा गाते हुये इनके दर्शन प्राप्त करने वाले अर्जुन के प्रेम की प्रशंसा की और कहा कि ‘मेरे इन स्वरूपों का प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इसके तत्व को समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्य भक्ति’ से ही सम्भव है।’ इसके बाद अनन्य भक्ति का स्वरूप और उसका फल अपने प्राप्ति बतलाकर भगवान् ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अब तक भगवान् के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपों की और दोनों के ही उपासकों की प्रशंसा और दोनों से ही परमधाम की प्राप्ति होने की बात सुन चुके हैं। अब वे इस सम्बन्ध में एक स्तर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दों में भगवान् से प्रार्थना करते हुए पूछा- एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ‘हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधि के अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त-साकार रूप मन मोहन श्याम सुन्दर की उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकार रूप की उपासना करते हैं, इन दोनों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है? प्रश्न स्पष्ट है-अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूप की दुर्लभता बताकर केवल अनन्य भक्ति से ही उस रूप के प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परंतु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं, अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकार की उपासना करने वालों में श्रेष्ठ कौन हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज