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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओं का फल का है, तो फिर अव्यक्तोपासक से व्यक्तोपासक को उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान् ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओं को उनकी सगुणो पासना की प्रवृत्ति की सिद्धि के लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तो पासना की रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुन को साकार का मन्द अधिकारी समझकर उसी के लिये व्यक्तोपासना को श्रेष्ठ करार दे दिया? भगवान् का क्या अभिप्राय था यह तो भगवान् ही जानें, परंतु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान् ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है, उनके शब्दों में रोचक-भयानक की कल्पना करना कदापि उचित नहीं, भगवान् ने न तो किसी को अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है। यहाँ भगवान् ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान् ने अगले तीन श्लोकों में स्पष्ट कर दिया है- क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । ‘जिनका मन तो अव्यक्त की ओर आसक्त है; परंतु जिनके हृदय में देहाभिमान बना हुआ है ऐसे लोगों के लिये अव्यक्त ब्रह्म की उपासना में चित्त टिकाना विशेष क्लेश साध्य है, वास्तव में निराकार की गति दुःख पूर्वक ही प्राप्त होती है।’ भगवान् के साकार-व्यक्त स्वरूप में एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्ग पर आरूढ़ हो सकता है; परंतु निराकार का साधक तो बिना केवट की नाव की भाँति निराधार अपने ही बल पर चलता है। अपार संसार-सागर में विषय-वासना की भीषण तरंगों से तरीको बचाना, भोगों के प्रचण्ड तूफान से नाव की रक्षा करना और बिना किसी मददगार के लक्ष्य पर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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