विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
सर्वगुह्रातमं भूय:[1]श्रृणु मे परमं वच: । (अब) तू सर्वगुह्यतम (सम्पूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय) मेरे परम श्रेष्ठ वचन को फिर भी सुन। तू मेरा दृढ़ इष्ट-अतिशय प्रिय है, अतएव तेरे ही (अथवा तेरे ही-जैसे प्रेमी भक्तों के) हित के लिये मैं तुझसे यह परम वचन कह रहा हूँ।अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो? मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझको ही प्राप्त होगा-यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सब धर्मों को त्यागकर तू केवल एक मुझ परम पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूयः’ से यह भाव समझना चाहिये-राजविद्या-राजगुह्य रूप नवम अध्याय के अन्त में (गीता 9/34 में) और पंद्रहवें अध्याय के अन्त में (15/17-20 में) संक्षेप से जो कह आये हैं, उसी को पुनः यहाँ विशद रूप में कहते हैं?
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज