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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
मेरा आश्रय लेकर पुरुष सब कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है। मन से सब कर्मों को मुझ में निक्षेप करके तथा बुद्धियोग का अवलम्बन करके तू मेरे परायण और निरन्तर मुझ में चित्त वाला हो जा । (उपर्युक्त प्रकार से) मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों से अनायास ही पार हो जायगा और यदि अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जायगा। जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ सो तेरा यह निश्चय मिथ्या है; तेरी प्रकृति ही तुझे युद्ध में लगा देगी। कुन्ती पुत्र! जिस (युद्ध रूप) कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ विवश होकर करेगा। अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से तू परम शान्ति को तथा शाश्वत स्थान को प्राप्त होगा। इस प्रकार यह गुह्य से भी गुह्य ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया। अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर जैसे चाहता है वैसे कर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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