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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चतुर्दश अध्याय
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । श्री भगवान् ने कहा-अर्जुन! जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश, रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति और तमोगुण के कार्यरूप मोह के प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष नहीं करता है और निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा नहीं करता।जो उदासीन के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों बरतते हैं-ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदान्दघन परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता। जो निरन्तर ‘स्व’-आत्मा में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी-पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, धीर, प्रिय-अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है। जो मान और अपमान में सम है, मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है; वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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