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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चतुर्दश अध्याय
भगवान् ही ब्रह्म आदि के आश्रय हैं जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति योग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है। (मेरे अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा भी गुणातीतावस्था की या ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है)। क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का, अमृत का, नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द आश्रय मैं (पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ही) हूँ। श्रीमद् भगवद्गीता-‘गुणत्रय विभाग योग’ नामक चतुर्दश अध्याय |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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