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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चतुर्दश अध्याय
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति । जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी कोकर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्द घनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस समय वह मेरे भाव को प्राप्त होता है।यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर अमृतत्व को प्राप्त होता है।अर्जुन बोले-प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है और वह कैसे इन तीनों गुणों से अतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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