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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दशम अध्याय
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्। इस पर अर्जुन ने कहा- आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं; आपको सब ऋषिगुण और देवर्षि नारद, असित, देवल, व्यास जी, सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी बतलाते हैं और स्वयं आप भी मुझसे ऐसा ही कहते हैं। केशव! आप जो कुछ भी मुझसे कहते हैं, इन सबको मैं सत्य (तत्व) मानता हूँ। भगवन्! आपके लीलामय स्वरूप को न तो देवता जानते हैं, न दानव ही। हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! भूतों के ईश्वर! देवों के देव! जगत् के स्वामी पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। इसलिये आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को पूरा-पूरा बतलाने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा इन लोकों को व्याप्त करके आप स्थित हैं। योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरन्तर आपका चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ और भगवन्! आप जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर विस्तारपूर्वक बतलाइये; क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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